दंतेवाड़ा- आदिवासियों ने अपने पूर्वजों की याद में सदियों पूर्व पत्थरों के स्तंभ को आज भी सुरक्षति रखा है। दंतेवाड़ा से करीब 12 किमी दूर बचेली मार्ग पर ऐसे सैकड़ों पाषाण स्तंभ एक ही जगह हैं। अब इन स्तंभों को पुरातत्व विभाग ने अपने संरक्षण में लेकर संरक्षित करने के लिए घेराबंदी कर दिया है। यह स्तंभ ब्रिटेन के स्टोनहेज की याद भी दिलाते हैं।
यहां सैकड़ों सैलानी साल भर पहुंचते रहते हैं। गमावाड़ा के आदिवासियों का पूर्वजों के प्रति स्नेह और सम्मान इसी बात से लगा सकते हैं कि वे हर साल नए अन्न् और साग- भाजी का सेवन तब तक नहीं करते जब तक उसका एक अंश अपने पूर्वजों के पाषाण को अर्पण न कर दें। सरपंच जया कश्यप का कहना है कि यह परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है।
उम्र और हैसियत का है पाषाण स्तंभ
स्तंभ में कुछ बड़े तो कुछ छोटे हैं। इसके पीछे भी अलग कहानी है। गांव के रामचंद्र भास्कर बताते हैं कि स्तंभ कितने पुराने हैं वह नहीं जानता लेकिन दादा- परदादा से यह जरूर सुना है कि कई पीढ़ियों से उनके बुजुगों को यहां दफनाया गया है। उन्हीं की याद में उनके उम्र और गांव हैसियत के आधार पर ही पत्थर लगाए गए हैं।
गांव का मुखिया, पंच और सम्मानित व्यक्तियों के स्मृति स्तंभ बड़े और ऊंचे हैं जबकि छोटे बच्चों व महिलाओं के स्मृति के पत्थर छोटे हैं। ग्रामीणों का कहना है कि समाज में जिसकी मृत्यु होती है, उसे दफनाने से पहले उससे जुडी रोजमर्रा की वस्तुएं बर्तन, कपड़े, जेवर आदि के साथ चावल, धान आदि गड्डे में पहले डाला जाता है। उसके बाद मृत शरीर को दफनाया जाता है। उसकी हैसियत के अनुसार पत्थर गाड़े जाते हैं। पत्थर से लुंगी, टावेल और साड़ी भी लपेट दी जाती है।
गांव में है पूर्वजों की आत्मा
गमावाड़ा के ग्रामीणों का मानना है कि मौत के बाद उनके पूर्वज की आत्मा उसी गांव में है। वे गांव और ग्रामीणों की रक्षा करते हैं। पूर्वजों की वजह से बुरी आत्मा और विपदा गांव में नहीं आती इसलिए साल में कम से कम एक बार ग्रामीण अपने पूर्वजों के मृतक स्तंभ पर पहुंचकर नया अन्न् अर्पण करते हैं। मान्यता यह भी है कि पूर्वज नए अन्न् से तृप्त होकर ग्रामीणों को खुशहाली का आशीर्वाद देते हैं।