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सोनभद्र की वो ज़मीन जिसके चलते गई दस लोगों की जान

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शनिवार दोपहर घोरावल तहसील मुख्यालय से क़रीब 25 किमी दूर उभ्भा गांव में प्रवेश करते ही लगा जैसे अति सुरक्षित और संरक्षित जगह पर आ गए हों. गांव में प्रवेश करने वाले सभी रास्तों पर पुलिस की गाड़ियां इस क़दर खड़ी थीं और पुलिस वाले इतने मुस्तैद थे कि ‘परिंदा भी पर नहीं मार सकता’ वाले मुहावरे का उदाहरण यहां ढूंढ़ा जा सकता था.

पेड़ के नीचे कुर्सियां डाले कुछ पुलिसकर्मी उठकर खड़े हो गए, जब गाड़ी उधर मुड़ने की कोशिश ही कर रही थी. ये सुनिश्चित करने के बाद कि मीडियाकर्मी हैं, उन्होंने आगे बढ़ने की अनुमति दी. गांव का हाल वैसा ही था जैसा कि इतने बड़े हादसे के बाद होता है. हर तरफ़ सन्नाटा और शोक पसरा था.

गांव में गांव के लोग कम, पुलिस वाले और उनकी गाड़ियां ज़्यादा दिख रही थीं. हालांकि गांव वालों का कहना था कि यहां बहुत ज़्यादा शोर-गुल वैसे भी नहीं रहता. ज़्यादातर गोंड आदिवासी रहते हैं, जो खेती और मज़दूरी में व्यस्त रहते हैं.

गांव के प्राइमरी स्कूल के आगे हम उस ज़मीन पर पहुंचे जहां 17 जुलाई को हुए भूमि विवाद में दस लोगों की मौत हो गई थी और 25 लोग घायल हो गए थे.

गांव की एक बुज़ुर्ग महिला रामरती प्राइमरी स्कूल के दूसरी ओर बने अपने कच्चे घर में दो-तीन छोटे बच्चों के साथ गुमसुम बैठी थीं. उनके परिवार के भी दो लोग इस संघर्ष की भेंट चढ़ चुके थे.

काहे की लड़ाई?

लड़ाई की वजह पूछने पर नाराज़ हो गईं, “काहे की लड़ाई? लड़ाई तो दो तरफ़ से होती है. ऊ लोग एकाएक दू ढाई सौ लोग ट्रैक्टर से और पैदल आए, खेत जोतने लगे. हमारे लोग मना किए तो लगे पीटने. जब गांव से चालीस-पचास आदमी इकट्ठा हो गया तो गोली मारने लगे.”

इस वाक्य के बाद उनकी आंखों के आंसू बाहर निकल आए. बताने लगीं कि उनके एक देवर और एक भतीजे की भी जान चली गई. भतीजे की पत्नी अपने दो छोटे-छोटे बच्चों के साथ वहीं मौजूद थी.

इस घर से महज़ आधा किमी दूर ही वो जगह थी जहां यह घटना हुई है. मेड़ों को रौंदते हुए, खेतों में ट्रैक्टरों के बेतरतीब पहियों के निशान 17 जुलाई की घटना के जैसे चश्मदीद हों, वो अब तक बने हैं. कहीं-कहीं कल्टीवेटर जैसे कुछ उपकरण भी छूट गए थे.

घटना के एक दिन बाद तक तो जगह-जगह बंदूकें, कुदाल, डंडे और कई अन्य हथियारनुमा चीजें भी पड़ी थीं जिन्हें बाद में पुलिस ने अपने कब्ज़े में ले लिया.

झगड़ा ज़मीन का

क़रीब सौ बीघा जिस ज़मीन पर अधिकार को लेकर गांव के प्रधान और आदिवासियों के बीच विवाद हुआ, वह ज़मीन अपने आप में काफ़ी विवादित और रहस्यमयी है. उम्भा गांव मुर्तिया ग्राम पंचायत के तहत आता है और यहां की क़रीब सात सौ की आबादी है जिनमें ज़्यादातर गोंड आदिवासी हैं. इसी ग्राम पंचायत के तहत सपही गांव भी आता है जहां ग्राम प्रधान यज्ञदत्त गुज्जर का घर है.

उभ्भा गांव की यह ज़मीन दो साल पहले उस वक़्त चर्चा में आई जब ग्राम प्रधान ने इस ज़मीन को ख़रीद लिया और पीढ़ियों से वहां खेती कर रहे गोंड आदिवासियों को फ़सल काटने और आगे बोने से मना करने लगे.

गांव वालों की ओर से वकील नित्यानंद द्विवेदी ने बीबीसी को बताया, “यह ज़मीन तो पचास के दशक से ही विवादित है. लेकिन दो साल पहले तक पूरी ज़मीन आदर्श कोऑपरेटिव सोसाइटी के नाम से थी और ये आदिवासी भी उसी सोसाइटी के मेंबर के तौर पर उस पर खेती करते थे और उसका कुछ हिस्सा सोसाइटी को देते थे. ऐसा वो दशकों से करते आ रहे हैं.”

ज़मीन की कहानी नित्यानंद द्विवेदी कुछ इस तरह बताते हैं, “दरअसल, यह ज़मीन बड़हर रियासत के राजा की कुल छह सौ बीघा ज़मीन का एक हिस्‍सा है. जब जमींदारी प्रथा ख़त्म हुई तो राजस्‍व अभिलेखों में इसे बंजर घोषित करके ग्राम सभा की संपत्ति के रूप में दर्ज कर दिया गया. गांव वाले इस ज़मीन को तब तक जोतते रहे जब तक कि साल 1952 में आईएएस अधिकारी रहे प्रभात कुमार मिश्र और भानु प्रताप शर्मा ने आदर्श कोऑपरेटिव सोसायटी लिमिटेड ऑफ उम्‍भा की स्‍थापना नहीं की. इन लोगों ने अपने तमाम रिश्तेदारों को कोऑपरेटिव सोसाइटी का सदस्य बना दिया और गांव वालों से भी कह दिया कि आप लोग भी सदस्य हो और इस पर खेती करते रहो. इन लोगों ने इसके बाद भी खेती करना जारी रखा.”

फ़र्ज़ीवाड़ा

नित्यानंद द्विवेदी के मुताबिक, गांव के आदिवासी सोसाइटी की ज़मीन पर खेती करते रहे और इधर सोसाइटी की ज़मीन समय-समय पर प्रभात कुमार मिश्र के रिश्तेदारों और कुछ अन्य सदस्यों के नाम रजिस्ट्री होती रही. साल 2017 में इसी में से क़रीब सौ बीघा ज़मीन ग्राम प्रधान भुर्तिया को बेच दी गई.

स्थानीय लोगों से बातचीत में ये जानकारी भी सामने आई कि पहले सोसाइटी के मुख्य लोग ही इस ज़मीन पर हर्बल खेती करना चाहते थे लेकिन ज़मीन पर कब्ज़ा न मिल पाने की वजह से ये संभव नहीं हो सका. स्थानीय लोगों का ये भी कहना है कि ग्राम प्रधान को ज़मीन बेचने के पीछे भी यही वजह है.

उभ्भा गांव के रामलाल कहते हैं, “हम लोग चार-पांच पीढ़ियों से इस पर खेती कर रहे हैं. हमारे पास कोई कागज नहीं है लेकिन हम यही जानते हैं कि सोसाइटी के मेंबर हैं और सोसाइटी में पैसा भी जमा करते हैं. दो साल पहले हम धान बोए थे तो प्रधान के लोग आकर कहने लगे अब तुम लोग इसे नहीं काटोगे और आगे से इस पर खेती भी नहीं करोगे क्योंकि ये ज़मीन हमने ख़रीद ली है. हम लोग नहीं माने. हमने कहा कि गरीब-गुरबा लोग हैं, खेती नहीं करेंगे तो खाएंगे क्या? दो साल से हम लोग सोसाइटी में पैसा भी नहीं जमा किए क्योंकि कोई आया ही नहीं लेने. प्रधान इस बार ज़मीन पर कब्ज़ा करने के लिए पूरी फ़ौज ही लेकर आ गया और हम लोगों पर हमला बोल दिया.”

नित्यानंद द्विवेदी के मुताबिक, ज़मीन को ग्राम सभा की ज़मीन के तौर पर दर्ज करना, उसे सोसाइटी को सौंपना और फिर उसकी ख़रीद-बिक्री करना ये सब कुछ अवैध था लेकिन ऐसा होता रहा. इसके पीछे वजह ये थी कि ये पूरा ‘खेल’ महज़ कुछ लोगों और स्थानीय अधिकारियों के बीच सीमित रहा. ज़मीन पर खेती करने वाले आदिवासियों को इसके बारे में कुछ पता नहीं था. वो तो ख़ुद को ज़मीन का मालिक समझ कर खेती करते चले आ रहे थे. लेकिन जब प्रधान ने ज़मीन ख़रीदकर उस पर कब्ज़ा करना चाहा तो इतना बड़ा विवाद हो गया.

अधिकारियों से पूछने पर उनके पास भी इसका कोई जवाब नहीं है. घोरावल के एसडीएम और अन्य अधिकारियों को निलंबित कर दिया गया है जबकि सोनभद्र के ज़िलाधिकारी अंकित अग्रवाल कहते है, “इस पूरे मामले की जांच के आदेश मुख्यमंत्री ने दे दिए हैं और छानबीन की जा रही है कि यह सब कैसे हुआ है.”

विवादित होने और आदिवासियों के खेती कर रहे होने के बावजूद ग्राम प्रधान ने ज़मीन क्यों ख़रीदी, इसका पता नहीं चल सका है. वजह ये है कि ग्राम प्रधान और उनके परिवार के चार लोग गिरफ़्तार हो चुके हैं जबकि महिलाओं समेत परिवार के अन्य सदस्य फ़रार हैं. उभ्भा गांव से तालाब के किनारे कच्चे रास्ते से होकर ग्राम प्रधान भुर्तिया के घर तक पहुंचना बेहद मुश्किल था. लेकिन उम्भा गांव से क़रीब दो किमी. दूर होने के बावजूद प्रधान का घर दिख रहा था क्योंकि कच्चे घरों वाले गांव में अकेला वही पक्का और आलीशान दिख रहा था.

ग्राम प्रधान के घर के बाहर कुछ पुलिसकर्मी ही थे जो कि सुरक्षा में लगे थे, घर पर कोई अन्य सदस्य मौजूद नहीं था. सैकड़ों बोरे गेहूं और तमाम अन्य चीजें घर के बाहर ही रखी थीं. गांव वालों के मुताबिक, ग्राम प्रधान मूल रूप से यहां के नहीं हैं बल्कि राजस्थान के किसी इलाक़े से साठ के दशक में इनके पूर्वज यहां आकर बस गए थे और सपही गांव में काफ़ी ज़्यादा ज़मीनें ख़रीद ली थीं.

शनिवार को ही कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी के पीड़ित परिवारों से मिलने की ज़िद के बीच उम्भा गांव में मृतकों के परिजनों को पांच-पांच लाख रुपये की सहायता राशि बांटी गई, लेकिन घायलों को पचास-पचास हज़ार रुपये अभी नहीं मिले हैं.

क़रीब दो दर्जन घायल लोगों का सोनभद्र के ज़िला अस्पताल और वाराणसी में इलाज चल रहा है. प्रियंका गांधी को उम्भा गांव आने की इजाज़त नहीं मिली और कुछ परिजनों की उनसे मुलाक़ात चुनार के क़िले में ही करा दी गई, जबकि अगले दिन यानी रविवार को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पीड़ित परिवारों से मिलने उभ्भा गांव पहुंचे.