कोरोनावायरस से लोगों को बचाने के लिए 25 मार्च से दुनिया का सबसे बड़ा लॉक डाउन भारत में शुरू हुआ. यह लॉक डाउन 21 दिन चलेगा और 130 करोड़ से ज़्यादा लोग अपने घरों में क़ैद रहेंगे. कोरोनावायरस से बचने का यह एक मात्र कारगर उपाय है जो दुनिया को इस समय समझ में आ रहा है. क्योंकि अभी तक इस बिमारी से इंसान को बचाने वाली कोई दवा या वैक्सीन नहीं बनी है. अभी तक के शोध और जानकारी बताते हैं कि यह वायरस एक दिन में ही लाखों की आबादी को अपनी चपेट में ले रहा है. यह वायरस एक आदमी से दूसरे आदमी तक फैल रहा है.
कोरोनावायरस के बारे में जानकारी देने के लिए दुनिया भर की सरकारें और निजी संस्थाएं और मीडिया पूरा दम लगा रहा है. लेकिन इसके बावजूद इस वायरस के बारे में भ्रम और अफ़वाहें बरक़रार हैं.
पिछले कुछ दिनों में मैने सोशल मीडिया पर अपने कुछ आदिवासी दोस्तों की कुछ पोस्ट पढ़ी हैं. इनमें से कुछ पोस्ट आदिवासियों और कोरोनावायरस के बारे में चिंता दिखा रही हैं. फ़ेसबुक पर मेरी मित्र सूचि में शामिल रजनी मूर्मू लगातार आदिवासी मामलों पर लिखती हैं. कोरोनावायरस के समय में भी वो लगातार आदिवासियों के मामले में अपनी चिंता ज़ाहिर कर रही हैं. मुझे लगा कि पिछले 4-5 साल में आदिवासी दुनिया से जो मेरा वास्ता रहा और जो भी मेरे सीमित अनुभव हैं, मुझे भी इस समय अपनी बात कहनी चाहिए.
आदिवासियों को भारत में दो श्रेणियों में रखा जाता है एक में वो आदिवासी जो काफ़ी हद तक मुख्यधारा कहे जाने वाले समाज के संपर्क में है और दूसरा आदिम जनजाति (PVTG) यानि ऐसे आदिवासी समूह जो अभी भी काफ़ी हद तक आधुनिक दुनिया के संपर्क में नहीं है. इन समूहों के जीवन शैली और औज़ार यानि जीने के संसाधन पुराने और बेहद सीमित हैं.
मेरी नज़र में दोनों ही आदिवासी समूहों को कोरोनावायरस से बराबर ख़तरा है. बल्कि जिन आदिवासी समूहों को PVTG कहा जाता है उनके लिए कोरोनावायरस बेहद ख़तरनाक साबित हो सकता है. यहां तक कि यह वायरस इन जनजातियों में से कई का तो वजूद ही मिटा सकता है. मुझे आदिवासियों के साथ जो भी समय बिताने का मौक़ा मिला, जितना मैने उन्हे देखा या समझा है, मैं यह बात पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं. इस विश्वास की कुछ वजह इस लेख में गिनवाने की कोशिश होगी.
पहले बात करते हैं बड़े आदिवासी समूहों की.
आदिवासियों की इम्यूनिटी यानि प्रतिरोधी क्षमता ज़्यादा होती है –
यह बात सही है कि आदिवासी बस्तियां जंगलों, पहाड़ी और पठारी इलाक़ों या घाटियों में होती हैं. ज़्यदातर आदिवासी बस्तियां छोटी होती हैं और उनके घर एक दूसरे से सटे नहीं होते. यह बात भी सही है कि उनके इलाक़ो में प्रदुषण कम होता है. उनके खाने में मिलावट नहीं होती है क्योंकि उनके खाने में अभी भी मोटे अनाज़ और वनोत्पाद शामिल होते हैं. लेकिन यह मान लेना कि उनकी इम्युनिटी समाज के बाकी तबकों से बेहतर होती है, बेहद ग़लत धारणा है. बल्कि मामला उल्टा है आदिवासियों में कुपोषण की वजह से मामूली बीमारियां भी घातक साबित होती हैं.
कोरोनावायरस आदिवासियों तक नहीं पहुंच सकता
भारत में आदिवासियों के बारे में ना जाने कैसी कैसी धारणाएं मौजूद हैं. उनमें से फ़िलहाल जो धारणा ख़तरनाक हो सकती है वो ये कि अभी भी आदिवासी दुनिया से कटे हुए हैं और जंगलों में ही रहते हैं. यह बात सही है कि उनके गांव और बस्तिया जंगल में हैं. लेकिन जब हम यह मानते हैं तो भूल जाते हैं कि झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल की कितनी आदिवासी लड़कियां दिल्ली, मुंबई कोलकाता और दूसरे शहरों में हमारे घरों में ही काम कर रही हैं. इसके अलावा गेंहू की कटाई हो या लहसुन की खुदाई के लिए लाखों आदिवासी मजदूर गुजरात जाते हैं. गुजरात के अपने नर्मदा, भरूच और महिसागर जैसे ज़िलों से आदिवासी मज़दूरी करने मुंबई जाते हैं. तो यह कहना कि आदिवासियों या उनकी बस्तियों तक कोरोनावायरस नहीं पहुंच सकता, एक बेहद ग़लत धारणा है. गुजरात के आदिवासी नौजवान नेता राज वसावा लगातार फेसबुक पर उन आदिवासी मजदूरों के बारे में लिख रहे हैं जो गुजरात से मध्यप्रदेश पैदल ही लौट रहे हैं.
अंधविश्वास और इलाज़ की सुविधाओं का अभाव
भारत के आदिवासियों में जब भी कोई बिमारी या महामारी फैलती है तो आमतौर पर आदिवासी समूह अपने देवी देवताओं को पूजते हैं. इसमें कई तरह के देवी देवता होते हैं जिसमें गांव देवता या कुल देवता होता है. आदिवासी आमतौर यह मानते हैं की खुशी और संकट दरअसल उनके पूर्वजों की आत्माओं के प्रसन्न होने या नाराज़ होने से है. लेकिन कोरोनावायरस के मामले में यह बेहद ज़रूरी है कि आदिवासियों में यह जागरूकता पैदा की जाए कि यह वायरस एक आदमी को दूसरे आदमी को छूने से फैलता है और एक सुरक्षित दूरी पर रहना बेहद ज़रूरी है.
इसके साथ ही यह बात भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि आदिवासी इलाक़ों में चिकित्सा सुविधाएं ना के बराबर हैं. ख़ासतौर पर मध्य और पश्चिमी भारत के आदिवासी इलाक़ो में तो चिकित्सा सुविधाओं की हालत बेहद ख़राब है. दूसरी चुनौती यह है कि आदिवासी इलाक़ों में रास्ते अच्छे नहीं होने की वजह से मरीज़ को अस्पताल तक लाना बहुत आसान नहीं होता.
तो आदिवासी इलाक़ो में कोरोनावायरस उतनी ही आसानी से पहुंच सकता है जितना किसी भी और इलाक़े में पहुंच रहा है. दूसरी बात आदिवासी को कोरोनावायरस से ज़्यादा ख़तरा है क्योकि इस समूह में कुपोषण ज़्यादा है और चिकित्सा सुविधाओं तक उनकी पहुंच ना के बराबर है.
आईए अब बात करते हैं PVTG आदिवासी समूहों के बारे में.
जैसा कि मैने पहले ही कहा कि ये वो आदिवासी समूह हैं जिनका बाहरी दुनिया या आधुनिक कहे जाने वाली दुनिया से संपर्क अभी भी सीमित है. इन समूहों में जारवा, ओंग, हिल खड़िया, बिरहोर, सहरिया जैसे 75 आदिवासी समूह आते हैं. मेरी नज़र में कोरोनावायरस इन आदिवासियों के वजूद को ही मिटा सकता है. मैं ऐसा क्यों मानता हूं उसकी कुछ वजह ये हैं.
इतिहास क्या कहता है
आईए भारत की आदिम जनजातियों और महामारियों या इंफेक्शन से फैलने वाली बिमारियों के इतिहास पर एक नज़र डालते हैं. बात अंडमान निकोबार से शुरू करते हैं. 1857 में अंग्रेज़ों ने अंडमान में अपना स्थाई अड्डा बनाया तो वह समय था जब यहां के आदिवासी समूह ग्रेट अंडमानी पहली बार बाहरी दुनिया के संपर्क मे आए. इस संपर्क के इस आदिवासी समूह के वजूद पर निर्णायक असर पड़ा. इस संपर्क का परिणाम ये हुआ कि आज यह आदिवासी समूह लगभग पूरी तरह से समाप्त हो चुका है और इस आदिवासी समूह की भाषा को बोलने वाला कोई नहीं बचा. इसकी बड़ी वजह ये थी कि मेनलैंड से जाने वाले लोग अपने साथ जो इंफेक्शन ले कर गए वो मामलू इंफेक्शन या वायरस भी इन आदिवासियों के लिए घातक साबित हुए. इसकी बड़ी वजह थी कि इन आदिवासियों की इम्यूनिटी किसी वायरस या इंफेक्शन से निपटने में सक्षम नहीं थी.
उस समय के गज़ट में इस बारे मे कुछ यूं तथ्य दर्ज हुए. इन आदिवासियों में बाहर से आए लोगों से 1868 में निमोनिया, 1876 में सिफ़लिस, 1877 में मिज़ल्स, और 1892 में इंफ्लूएंज़ा फैला.
फ़िलाहाल क्या हाल है
मुझे पिछले 4-5 साल में भारत के आदिम जनजातियों में से कम से कम 17 समूहों से मिलने का मौक़ा मिला है. इन समूहों में अंडमान के जारवा, ओंग और निकोबार के आदिवासी भी शामिल हैं. इसके अलावा मैने मध्यप्रदेश के सहरियाओं में एक के बाद एक बस्तियों में बच्चों की मौत को कवर किया. इसके साथ ही ओडिशा के मयूरभंज के जंगलों से लेकर झारखंड के हज़ारी बाग और पलामू ज़िलों के आदिवासियों से मिलने का मौक़ा मिला.
जहां तक अंडमान के आदिवासियों का मसला है तो यह आधिकारिक तौर पर माना जाता है कि बाहरी दुनिया से संपर्क इन आदिवासियों के लिए ख़तरनाक़ साबित हुआ है. तो अगर कोरोनावायरस अगर इन आदिवासियों तक पहुंच गया तो इन्हे बचाना बेहद मुश्किल साबित हो सकता है.
देश के दूसरे आदिम जनजातियों में से कई समूहों का वजूद पहले से ही ख़तरे में है. इस स्थिति में आदमि जनजातियों के लिए भी यह कोरोनावायरस बेहद ख़तरनाक हो सकता है.
क्या आदिम जनजाति समूह कोरोनावायरस की पहुंच से दूर हैं
यह मानना भी उतना ही ग़लत है जितना गोंड, भील या संथाल जैसे बड़े आदिवासी समूहों के बारे में मानना होगा. यह बात सच है कि आदिम जनजातियों में से कई ऐसे समूह हैं जो आज भी आधुनिक कहे जाने वाले समाज से दूर हैं. लेकिन ये लोग किसी भी तरह से बाहरी दुनिया के संपर्क में नहीं हैं यह भारत के किसी भी आदिवासी समूह के बारे में नहीं कहा जा सकता है. यहां तक की जारवा, सेंटनेली और शॉम्पेन जैसे आदिवासी समूह भी पूरी तरह से अछूते नहीं हैं. यह ज़रूर है कि बाहरी दुनिया से ये आदिवासी समूह अभी भी सीमित संपर्क में ही हैं. ये आदिवासी वनविभाग के कर्मचारियों और अधिकारियों के संपर्क में आते रहते हैं. इसके अलावा भी वनोत्पाद की तस्करी से जुड़े लोग भी इन आदिवासी समूहों के संपर्क में आते हैं. इसलिए यह समझ लेना कि इन आदिवासियों तक कोरोनावायरस नहीं पहुंच पाएगा, बेहद लापरवाही भरी समझ होगी.
यह चुनौती भरा समय है और पूरा देश इस चुनौती से जूझ रहा है. लेकिन आदिवासी भारत के बारे में आश्वस्त रहना या फिर लापरवाह रहना कि वहां कोरोनावायरस नहीं हो फैलेगा, एक घातक रैवया हो सकता है.