किसी नक्सली घटना के बाद अक्सर पत्रकार अगले दिन ही घटनास्थल पर पहुंच जाते हैं. पत्रकारों की संख्या भी ज्यादा होती है, पुलिस भी होती है, लेकिन हमने थोड़ी देर कर दी. सुकमा में 17 जवानों की शहादत के दो दिन बाद हम घटनास्थल पर पहुंचे. अब न वहां पुलिस थी, न बड़ी संख्या में पत्रकार. सिर्फ मैं, मेरे तीन और वरिष्ठ साथी थे. उम्मीद थी कि घटनास्थल से रिपोर्टिंग कर तुरंत लौट आएंगे, लेकिन घटनास्थल से जवानों के लौटते ही वहां फिर से नक्सलियों का जमावड़ा हो गया था.
जैसे ही हम मिनपा गांव से आगे पहुंचे उन नक्सलियों से सामना हो गया जो जवानों की हत्या में शामिल थे. काली वर्दीधारी नक्सली, शायद वही नक्सली, जिन्हें नक्सलियों की बटालियन नंबर-1 कहा जाता है. हमारे वहां पहुंचते ही कई बंदूकधारी नक्सलियों ने हमें घेर लिया. हमारे कैमरे छीन लिए गए. मोबाइल जेब मे रखवा दिए गए. हालांकि उससे पहले नक्सलियों की कुछ सेकंड की तस्वीरें हमारे कैमरे में कैद हो गई थी.
दो घंटे तक बनाया बंधक
कुल मिलाकर 2 घंटे के लिए बंधक बना दिया गया. नक्सलियों की मौजूदगी वैसे ही खतरनाक होती है, लेकिन ये और खौफनाक तब हो जाती है जब फ़ोर्स के पहुंचने का अंदेशा हो. और ऐसा ही कुछ हुआ भी. हुआ यूं कि जंगल से 2 बैल तेज़ी से दौड़ते हुये हमारी ओर आने लगे और नक्सलियों को लगा कि फ़ोर्स पहुंच चुकी है.
सोचा क्रॉस फायरिंग में मारे जाएंगे
अफरातफरी मच गई और सभी नक्सली भागते हुए अपना हथियार तैयार करने लगे. हमारी धड़कन बढ़ गयी और हमें लगा कि आज हम क्रॉस फायरिंग में मारे जाएंगे. क्योंकि क्रॉस फायरिंग में चली गोलियां यह नहीं पूछेगी की आप पत्रकार हैं या नक्सली. खैर 2 घंटे बंधक रहे. इस दौरान कई बार नक्सलियों से इंटरव्यू देने की गुजारिश भी की, लेकिन वो कुछ दूर बैठे किसी नागा नाम के नक्सली नेता ने खारिज कर दी. शायद वो नक्सली नेता नागेश होगा. नक्सली करीब दो घंटे घटनास्थल से बचे गोलियों के खोखे और दूसरे सामान इकट्ठा करते रहे. और दो घंटे बाद हमें इस हिदायत के साथ छोड़ दिया गया कि अगली बार सोच समझ कर यहां आएं.