कल्पना कीजिए कि आप अपने कुटुंब-परिवार के साथ एक त्यौहार मनाने इकठ्ठा हुए हैं. चारों तरह खुशियों का माहौल है, खेलते बच्चे हैं, उल्लास है, उमंग है, और अचानक चारों तरफ से घेर कर गोलीबारी शुरु हो जाए और जब तक आप संभल पाएं तब तक 17 लाशें आपके सामने गिर चुकी हों…इतना ही नहीं मारे गए आपके बेकसूर परिजनों को सरकार नक्लसी बता कर अपनी पीठ थपथपाए. यह सोचना ही अपने आपमें इतना भयावह है, हम नहीं चाहते कि आपके साथ कभी ऐसा हो, लेकिन अभी जो आपने जो कल्पना में महसूस किया वो हक़ीक़त में घटा था आज से क़रीब सात साल पहले छत्तीसगढ़ में.
बीजापुर के सारकेगुड़ा गांव में 28 जून 2012 की वो काली रात जब 17 निहत्थे आदीवासी ग्रामीणों को माओवादी बताकर गोलियों से भून दिया गया. इस घटना की जांत के लिए गठित जस्टिस वी के अग्रवाल जांच आयोग ने अपनी रिपो्र्ट में यह बताया है.
उन दिनों छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार थी, और केंद्र में कांग्रेस की. सारकेगुड़ा में आदिवासी ग्रामीण अपना पारंपरिक त्यौहार पंडूम मनाने इक्कठ्ठा हुए थे. सुरक्षा बलों को उन पर माओवादी होने का शक हुआ और उन्होंने बच्चे,बड़े, बुजुर्ग, महिलाएं देखें बिना गोली चला दी. मरने वालों में 7 नाबालिग भी शामिल थे. गांववालों की तरफ से कोई गोलीबारी नहीं हुई. इस घटना के बाद अगले दिन इलाक़े के एसडीएम साहब राशन लेकर जब सारकेगुड़ा पहुंचे तो स्थानीय लोगों का गुस्सा फूट पड़ा. नर्स के तौर पर काम करने वालीं कमला काका के सवालों का एसडीएम के पास कोई जवाब नहीं था.
आदिवासियों के सवाल पर ख़ामोश सरकार

न केवल गोलियों से भूना गया ग्रामीणों को बल्कि, जो अधमरे थे, उन्हें भी नहीं छोड़ा गया. ग्रामीण पूछ रहे थे कि अगर हम लोग नक्सली हैं तो राशन क्यों लेकर आए हो ? जब तक हमारे लोग यहां नहीं आएंगे हम लोगों राशन-पानी भी नहीं चाहिए आपका. इन दिनों रिपोर्ट आने के बाद सोशल मीडिया पर यह वीडियो वायरल हो रहा है. जस्टिस वीके अग्रवाल की रिपोर्ट कहती है कि 7 साल में सुरक्षाबल एक सबूत नहीं दे पाए कि जिन लोगों को उन्होंने मारा वो माओवादी थे.
सरकार ने उस समय दावा किया था कि बीजापुर में सुरक्षाबल के जवानों ने एक मुठभेड़ में 17 माओवादियों को मार डाला है. तब केंद्र में यूपीए की सरकार थी और तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदंबरम ने इसे बड़ी उपलब्धि माना था. राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह ने इस कथित मुठभेड़ के लिये सुरक्षाबलों की प्रशंसा की थी. उन्होंने दावा किया था कि “मारे जाने वाले सभी लोग माओवादी थे.”
लेकिन जब सामाजिक और आदिवासी अधिकार कार्यकर्ताओं की तरफ से सवाल तेज़ होते गए. केंद्र में भले ही कांग्रेस पार्टी ने सुरक्षाबलों की इस कार्रवाई की सराहना की लेकिन, छत्तीसगढ़ में राज्य स्तर पर कांग्रेस पार्टी ने अपनी एक जांच टीम बनाकर मामले की जांच की और राज्य की सत्ताधारी भाजपा सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया था. साथ ही तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह के इस्तीफ़े की मांग की थी. इन्हीं सब दबावों के चलते आदिवासियों के इस बड़े नरसंहार के बाद तत्कालीन राज्य सरकार ने एक सदस्यीय जांच आयोग का गठन किया था.
इस एक सदस्यीय जांच आयोग के अध्यक्ष जस्टिस विजय कुमार अग्रवाल बनाए गए. इसी साल 30 नवंबर को छत्तीसगढ़ कैबिनेट को यह रिपोर्ट सौंपी गई. 1 दिसंबर को यह रिपोर्ट लीक होकर मीडिया में आई और 2 दिसंबर को इसे छत्तीसगढ़ विधानसभा में पेश किया गया. इस रिपोर्ट के मुताबिक मारे गए लोग नक्सली नहीं बकसूर ग्रामीण आदिवासी थे.
सुरक्षाबलों के झूठे दावों की खुली पोल
इस पूरे मामसे पर सुरक्षा बलों का कहना था कि सीआरपीएफ और छत्तीसगढ़ पुलिस की संयुक्त टीम सारकेगुड़ा में 28 जून 2012 की रात नक्सलियों की बैठक स्थल के पास पहुंची. सुरक्षा बलों ने यह भी दावा किया था कि नक्सलियों की तरफ से उन पर फायरिंग की गई, जिस पर उन्होंने जवाबी फायरिंग की. हालांकि, गांव वाले पहले से इस दावे का खंडन करते रहे और कहा कि फायरिंग में मारे गए सभी आम लोग थे और पारंपरिक उत्सव की तैयारियों के लिए रात में इकठ्ठा हुए थे.
अब जब जस्टिस विजय कुमार अग्रवाल की रिपोर्ट आ गई है तो सुरक्षाबलों के ये सभी दावे ध्वस्त हो गए हैं. रिपोर्ट कहती है कि गांव वालों की तरफ से फायरिंग की बात गलत है और सुरक्षा बल यह साबित नहीं कर सके कि जिन लोगों को निशाना बनाया गया वे सभी नक्सली थे. रिपोर्ट में कहा गया कि है कि मारे गए सभी लोग स्थानीय आदिवासी थे और उनकी ओर से कोई गोली नहीं चलाई गई थी और न ही उनके नक्सली होने के सुबूत हैं.
रिपोर्ट कहती है कि ग्रामीणों को बहुत कम दूरी से गोली मारी गई, जबकि सुरक्षाबल आपसी क्रॉस फायरिंग में घायल हुए. आयोग बताता है कि इस मामले को दबाने के लिए पुलिस ने कोई कसर नहीं छोड़ी. पुलिस की जांच में कई खामियां पाईं गईं और जांच के साथ छेड़छाड़ की गई.

रिपोर्ट में पुलिस द्वारा घटनास्थल से हथियार और गोलियां जब्त होने के दावे को भी खारिज किया गया है. पुलिस ने बयान दिया था कि मारे गए लोग घने जंगल में थे लेकिन आयोग ने अपनी रिपोर्ट में पाया कि मारे गए लोग बीजापुर ज़िले के सारकेगुड़ा और सुकमा ज़िले के कोट्टागुड़ा और राजपेंटा गांव , इन तीन गांव से लगे खुले मैदान में बैठक कर रहे थे. आयोग की रिपोर्ट कहती है कि जिन्हें सुरक्षाबलों ने मारा उनका नक्सलियों से कोई संबंध तक नहीं था. यानि पुलिस और सीआरपीएफ की पूरी तैयारी थी क्राइम सीन क्रिएट करके बेकसूर गांव वालों को नक्सली घोषित करने की, लेकिन सच आखिर सामने आ ही गया.
रिपोर्ट के बाद उठते और भी सवाल
जस्टिस वीके अग्रवाल की रिपोर्ट के आने के बाद अब कई तरह के सवाल उठने लगे हैं जैसे सामाजिक कार्यकर्ता और वकील बेला भाटिया पूछती हैं कि कांग्रेस ने 2012 में सारकेगुडा एनकाउंटर को फर्जी बताया था,लेकिन वही एक महीने से अधिक समय तक रिपोर्ट को दबाती रही. अगर सरकार पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए प्रतिबद्ध है, तो उसे बहुत पहले रिपोर्ट को सदन में पेश कर देना चाहिए था.
इस रिपोर्ट के बाद अब छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित बस्तर जिले में भी सुरक्षा बलों की फायरिंग पर सवाल उठने लगे हैं. अब 23 सितंबर को दंतेवाडा जिले के कुत्रेम में पुलिस-नक्सलियों की मुठभेड़ को भी फर्जी बताया जा रहा है.
सुरक्षाबलों पर अक्सर नक्सल प्रभावित इलाकों में ग्रामीणों के साथ बुरा व्यहवार करने और उन्हें अमानवीय यातनाएं देने के आरोप लगते रहते हैं. मानवाधिकार कार्यकर्ता मानते हैं कि कई बार सुरक्षाबलों की तरफ से शाबाशी या पद या पुरस्कार पाने के लिए भी फर्जी कार्रवाई होती हैं. फिलहाल सारकेगुड़ा मामले में आई रिपोर्ट आदिवासी अधिकारों और न्याय के लिए बड़ी उम्मीद जगाती है लेकिन दोषियों सज़ा मिलना अब भी बाक़ी है.