दापोरिजो सुबनसिरि नदी के किनारे बसा एक छोटा सा शहर है. यह शहर अपर सुबनसिरि ज़िले का मुख्यालय है. 2011 के जनगणना के हिसाब से इस ज़िले की कुल जनसंख्या 83 हज़ार से ज़्यादा है. ज़िले की लगभग पूरी आबादी आदिवासी लोगों की है. जनगणना आंकडों के हिसाब से कुल जनसंख्या का 93 प्रतिशत हिस्सा आदिवासी है. सात हज़ार वर्ग किलोमीटर में फैले अपर सुबनसिरि ज़िले में 83 प्रतिशत आबादी ग्रामीण इलाक़ों में रहती है और यहां साक्षरता दर का औसत है क़रीब 63 प्रतिशत.

(दापोरिजो, सुबनसिरि नदी के किनारे बसा एक छोटा सा शहर है)
शिकारिजो गांव के लोगों से मुलाक़ात
दापोरिजो की सबसे बड़ी जनजाति तागिन के लोगों से मिलवाने के लिए हमारी टीम को दिकबोम अपने एक साथी के साथ अपनी परंपरागत पोशाक में आए थे। उनके साथ हम शिकारीजो गांव जाना था. यहां एक घर में उनकी परंपरागत पूजा में हमें शामिल होना था. शिकारीजो गांव ज़िला मुख्यालय से बहुत दूर नहीं है सो हमें वहां पहुंचने में ज़्यादा समय नहीं लगा. गांव में पहुंचने पर पहले दिकबोम के पिता और उनके साथी ने परंपरागत तरीक़े से हमारा स्वागत किया और उसके बाद घर के दरवाज़े पर घर की महिलाओं ने माथे और गाल पर चावल पीस कर बनाए गए लेप लगाकर अपने घर में हमारी टीम की आगवानी की. तागीन घरों में बीचों बीच चूल्हा होता है, जिसके उपर एक झूला बनाया जाता है, इस पर पर लकड़ियां और खाने पीने की चीजें रखी जाती है.

(एक तागीन घर)
चूल्हे के चारों तरफ़ लोगों के बैठने की जगह होती है. लेकिन परिवार के पुरूषों, महिलाओं और मेहमानों की बैठने की जगह तय होत है. जिस घर हम पहुंचे तो परिवार के सदस्यों और हमने अपनी अपनी जगह ली और बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ दिकबोम के पिता के साथ जो भारत तिब्बत सीमा पुलिस से रिटायर्ड हैं. वो आईटीबीपी में कैसे शामिल हुए यह कहानी काफ़ी मज़ेदार है. उन्होने मुझे बताया
“हमारे गांव में निशानेबाज़ी की प्रतियोगिता थी, इस प्रतियोगिता में आईटीबीपी के एक बड़ अधिकारी आए हुए थे. मेरा निशाना शानदार था मैने हर बार दस में से दस अंक हासिल किए. ये अधिकारी मेरी निशानबाज़ी से इतने प्रभावित हुए कि उसी दिन मुझे फोर्स में भर्ती कर लिया गया.”

(तादिक्य कारे, दिकबोम के पिता)
आत्माओं में करते हैं विश्वास और प्रकृति की करते हैं पूजा
परिवार के साथ शुरूआती बातचीत के बाद पुजारी ने पूजा शुरू की. पुजारी सबसे पहले मुर्गी का अंडा लेकर घर के बाहर जाते हैं और आसमान की तरफ देखकर कुछ मंत्रोच्चारण करते हैं. उसके बाद घर के भीतर आते हैं, फिर से मंत्रोच्चारण करते हैं. इसके बाद अंडे को उबाल कर तोड़ा जाता है. अंडे को छील कर अंडे का छिलका घर में मौजूद पुरूषों को दिखाया जाता है. छिलके और अंडे को देखकर सभी संतुष्ट होते हैं. पुजारी परिवार को आश्वस्त करते हैं कि घर की सुख शांति को किसी तरह का ख़तरा नहीं है.
पूजा के बाद पुजारी से हमारी बातचीत होती है, वो हमें बताते हैं,
“अंडे को उबालने के बाद हम लोग देखते हैं कि अंडे का अंदर का हिस्सा खुरदुरा तो नहीं है. अंडे की अंदर की बनावट से हमें पता चलता है कि हमारे पूर्वजों की आत्मा प्रसन्न हैं या फिर नाराज़.”
वो हमें बताते हैं कि तागीन जनजाति के लोग मे प्रकृति के पुजारी हैं. तागीन मानते हैं कि पूर्वजों की आत्मा ही भगवान है जो आपका भला या बुरा कर सकती है. इसलिए आत्माओं का शांत और प्रसन्न रहना बेहद ज़रूरी है. पूजा के बाद पुजारी और परिवार के सभी सदस्य दावत में शामिल होते हैं. खाने में चावल, कई तरह का साग, सूअर, मिथुन और मछली का मांस परोसा गया.

(आत्माओं को प्रसन्न करते तागीन पुजारी)
मजबूत हैं परंपरागत क़ानून, बदल रहें धार्मिक प्रतीक
तागिन जनजाति प्रकृति के पुजारी रहे हैं और उनके धार्मिक विश्वास और मान्यताएं आधुनिक समाज या फिर संगठित धर्मों से कफ़ी अलग हैं. लेकिन अब उनके धार्मिक प्रतिकों और विश्वासों में कुछ बदलाव भी देखे जा सकते हैं. मसलन अब ये आदिवासी अपने देवी देवाताओं के मंदिर बना रहे हैं और मंदिर में धूप और दिया जलाते हैं.
नाह और मरा समूह लेकर मतभेद
तागिन जनजाति का बड़ा केन्द्र अपर सुबनसिरि ज़िला ही है, लेकिन आस-पास के ज़िलों में भी इस जनजाति के कुछ परिवार बसे हैं। इस समुदाय की आबादी 50 से 60 हज़ार के बीच बताई जाती है। दरअसल अरूणाचल प्रदेश की दो जनजातियों को लेकर मतभेद सामने आते हैं. ये जनजातियां हैं नाह और मरा। कुछ लोग इन दो को तागिन जनजाति के उप समूह मानते हैं और कुछ लोग कहते हैं कि नाह और मरा जनजातियों की अपनी अलग पहचान है.
राजीव गांधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय, इटानगर के प्रोफेसर बिकास बागे ने हमें बताया,
“तागीन जनजाति की उत्पति के बारे में कोई ठोस अध्य्यन नहीं हुआ है, लेकिन नाह के बारे में पता चलता है कि वो तिब्बत से आए हैं, लेकिन तागीन जनजाति के लोग नाह और मरा दोनों ही जनजातियों को अपने समुदाय का हिस्सा मानते हैं. ठीक ठीक कुछ कहना मुश्किल है.”
तागीन जनजाति के ग्रामीण इलाक़ों में अभी पहाड़ी ढ़लानों पर अभी भी जूम खेती होती है। लेकिन अब यहां पर संतरे की खेती भी हो रही है. खेती की यह विधि काफ़ी हद तक इन लोगों को स्थाई खेती के लिए प्रेरित कर रही है. इसके अलावा इस जनजाति ने शिक्षा के क्षेत्र में काफ़ी तरक्क़ी की है. हांलाकी इस जनजाति की कुल साक्षरता दर 63 प्रतिशत है पर पुरूषों में साक्षरता दर 75 प्रतिशत से ज़्यादा है और अब तागिन जनजाति सिर्फ़ खेती के सहारे नहीं है.
दापोरीजो हमने कई दिन बिताए….और इस दौरान बड़ी ही ग़र्मजोशी से इस समुदाय के लोग हमसे मिले. यह अनुभव हमारी टीम के लिये बेहद ख़ास रहा.