आदिवासी बाहुल्य राज्य छत्तीसगढ़ में आदिवासी आज भी जल-जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ रहे हैं. आदिवासी समाज के लोग इस स्थिति के लिए सरकारों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं तो वहीं जानकर इसे समाज के जिम्मेदारों की कमजोरी की देन बता रहे हैं. ऐसे में जानते हैं कि आखिरकार छत्तीसगढ़ राज्य गठन के 19 साल बाद क्या है आदिवासियों की वास्तविक स्थिति?
32 फीसदी जनसंख्या वाले आदिवासी बाहुल्य राज्य छत्तीसगढ़ में आज भी आदिवासी अपने अधिकारों के प्रति संघर्षरत दिखाई दे रहे हैं. वे बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के लिए आज भी गुहार लगाते ही दिखाई पड़ते हैं. आलम यह है कि जंगल के मालिक कहे जाने वाले आदिवासियों की स्थिति दिन प्रतिदिन बदतर होती जा रही है. अनुसूची पांच, पेशा कानून जैसे शब्द किताबों में ही प्रबल हो रहे हैं. जबकि सूबे के 90 में से 29 विधानसभा सीट आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं.

क्या कहते हैं जानकार आदिवासी मामलों के जानकार बीके मनीष कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में आज भी आदिवासी वर्ग अपने आप को उपेक्षित ही महसूस कर रहा है. वहीं सियासतदान आज भी सियासी बोल बोल कर ही इतिश्री कर रहे हैं. छत्तीसगढ़ आदिवासी छात्र वर्ग के अध्यक्ष योगेश ठाकुर का कहना है कि आज भी आदिवासी छात्र अपने अधिकारों का लाभ नहीं ले पा रहे हैं. कई इलाकों में शिक्षा की बुनियादी सुविधाएं भी उन्हें नहीं मिल रही हैं.
छत्तीसगढ़ राज्य में सत्ता कर रही कांग्रेस पार्टी के महामंत्री शैलेष नितिन त्रिवेदी का कहना है कि प्रदेश में पूर्व की बीजेपी सरकार आदिवासियों के अधिकारों का हनन ही करती थी, लेकिन जब से कांग्रेस की सरकार सत्ता में है, आदिवासी हितों के लिए लगातार बेहतर काम किए जा रहे हैं. वहीं बीजेपी की टिकट पर रायपुर लोकसभा क्षेत्र से सांसद सुनील सोनी का कहना है कि 15 साल में सत्ता के दौरान बीजेपी ने आदिवासियों के लिए प्रदेश में बहुत काम किया है. तेंदूपत्ता समर्थन मूल्य बढ़ाने, बस्तर में विकास सहित कई काम किए गए.

बेशक सियासतदान आदिवासियों की बेहतरी का दावा कर अपनी-अपनी योजनाओं का बखान कर रहे हों. लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि जिस जनजातीय सलाहकार परिषद में गैर आदिवासी अध्यक्ष की दुहाई देकर कांग्रेस बतौर विपक्ष सड़क से लेकर सदन तक पूर्ववर्ती बीजेपी सरकार पर हमलावर रहती थी. वही कांग्रेस पार्टी सत्ता में आने के साथ ही फिर से गैर आदिवासी को ही अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंप दी है. जिसे आदिवासी समाज के प्रतिनिधी इसे समाज के साथ बड़ा धोखा करार देते हुए राज्यपाल से भी गुहार लगा चुके हैं. पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह का कहना है कि पहले कांग्रेस आदिवासी परिषद का अध्यक्ष आदिवासी ही बनाने की मांग करती थी, लेकिन अब सत्ता में आने के बाद खुद गैर आदिवासी को अध्यक्ष बनाया है.
नुकसान हो रहा है
आदिवासी नेता व पूर्व मंत्री अरविंद नेताम का कहना है कि आदिवासी नेताओं की संसद और विधानसभा में निष्क्रियता ही समाज के पिछड़ेपन का कारण है. नेताओं को चुनकर इसलिए भेजा जाता है. ताकि वो वहां की स्थिति संसद और विधानसभा में रखें, लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो रहा है. राजनीतिक विश्लेषक रविकांत कौशिक भी ऐसा ही मानते हैं. उनका कहना है कि जब तक आदिवासी वर्ग के प्रतिनिधि खुलकर अपनी बात नहीं रखेंगे तब तक समस्या बरकरार ही रहेगी.