पूरे देश में जहां होली के अवसर पर रंग-गुलाल खेलकर अपनी खुशी का इजहार किया जाता है। वहीं बस्तर में होली के अवसर पर मेले का आयोजन कर सामूहिक रूप से हास्य-परिहास करने की प्रथा आज भी विद्यमान है। इतिहासकारों का कहना है कि बस्तर के काकतीय राजवंशियों ने इस परंपरा की शुरूआत माड़पाल ग्राम में आयोजित किये जाने वाले होलिका दहन कार्यक्रम से की थी। बस्तर के दशहरा उत्सव की तरह बस्तर का होलिका दहन कार्यक्रम भी अनूठा है। माड़पाल, नानगूर तथा ककनार में आयोजित किये जाने वाले होलिका दहन कार्यक्रम इसके जीते-जागते उदाहरण है। स्थानीय लोगों का कहना है कि काकतीय राजवंश के उत्तराधिकारियों द्वारा आज भी सर्वप्रथम ग्राम माड़पाल में सर्वप्रथम होलिका दहन किया जाता है, इसके बाद ही अन्य स्थानों पर होलिका दहन का कार्यक्रम प्रारंभ होता है।
माढ़पाल में होलिका दहन की रात छोटे रथ पर सवार होकर राजपरिवार के सदस्य होलिका दहन की परिक्रमा भी करते है जिसे देखने के लिए हजारों की संख्या में वहां आदिवासी एकत्रित होते है। यह बात दीगर है कि बदलते परिवेश के साथ-साथ माढ़पाल होलिका दहन के कार्यक्रम में अब अनैतिकता का बोलबाला ज्यादा हो गया है। स्थानीय पुलिस द्वारा अब माढ़पाल में आदिवासी युवतियों के साथ होने वाली छेड़-छाड़ को रोकने के लिए व्यापक व्यवस्था भी की जाने लगी है। इसी प्रकार नानगूर और ककनार में मेलों का आयोजन भी किया जाता है। होली की रात इन दोनों ग्रामों में रातभर नाट का आयोजन होता है। जिसके माध्यम से सामूहिक रूप से हास-परिहास का दौर चलता रहता है।
मां दंतेश्वरी टेशू के रंगों से तैयार रंग से होली खेलेगी। इसके लिए बोरियों में टेशू के फूल एकत्र कर शक्तिपीठ लाया जा रहा है। इन फूलों को उबालकर रंग तैयार किया जाएगा। चिकित्सकों द्वारा लगातार रासायनिक रंगों का उपयोग न करने की सलाह लोगों को दी जा रही है, बावजूद इसके बाजार से रासायनिक प्रक्रिया से तैयार रंग और गुलाल खरीदकर लोग होली खेल अपनी त्वचा खराब करते हैं, लेकिन बस्तर का आदिम समाज आज भी परंपरागत रंगों का उपयोग कर माईंजी के साथ होली खेलता है।