नक्सलवाद की समस्या बस्तर में केंद्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार देश के नक्सल प्रभावित 30 जिलो में से बस्तर संभाग के 07 जिले अति नक्सल प्रभावित जिले में शामिल है, अर्थात पूरे देश मे नक्सलवाद का केंद्र बिंदु बस्तर संभाग ही है। नक्सलवादियों के लिए सबसे सुरक्षित पनाहगाह वर्तमान में ढहने के कगार पर पहुँच गया है। यह दूसरा अवसर है जब बस्तर में नक्सलवाद पूरी तरह से बेकफुट पर हैं। इससे पूर्व भी एक अवसर मिला था, लेकिन शासन उसमे सफल नही हुआ था, उन गलतियों को यदि दोबारा नही दोहराया गया तो दक्षिण बस्तर से नक्सलवाद के अंत के साथ ही पूरे देश से नक्सलवाद के उन्मूलन का स्थायी समाधान हो सकता है। इसका पूर्वानुमान भी शासन स्तर पर महसूस किए जाने लगा है, तथा 2022 तक बस्तर से नक्सल समस्या को समाप्त कर दिए जाने की रणनीति के साथ ही मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह के बयान से स्पष्ट होता है। नेशनल पार्क का वह क्षेत्र जहां सबसे पहली बार स्थानीय वनवासियों-ग्रामीणों के द्वारा नक्सलवाद का विरोध हुआ था, जिसे शासन संरक्षित करने तथा उनके जान-माल की सुरक्षा के स्थान पर नक्सलवादियों के अर्बन नेटवर्क के जाल में फसकर उन्हें नक्सलवादियों के हाथों में मरने के लिए छोड़ दिया गया। तब नक्सलियों के विरुद्ध जनजागरण और सलवा जुडूम अभियान से जुड़े लगभग उन सभी लोगों की हत्या नक्सलियों ने कर दिया था। जिसके बाद स्थानीय लोगो का प्रशासन के ऊपर से विश्वास पूरी तरह से उठ गया और नक्सली फिर से दक्षिण बस्तर में अपनी पैठ बनाने में सफल हो गए।
यह निर्विवाद सत्य है कि बस्तर के वनवासी सामाज नक्सलियों का समर्थन नही करता है। लेकिन यह विडंबना ही है कि जिस नेशनल पार्क क्षेत्र के लोगो ने नक्सलियों का पहला खुला विरोध किया था, उसे अपने हाल में उपेक्षित छोड़ दिया गया है। अब वहां कोई भी नक्सलवाद का विरोध करने की हिम्मत नही दिखाता है, विरोध तो दूर की बात है, अब यहां सडक़, बिजली, पानी जैसे मूलभूत आवश्यकताओ की मांग भी करने का साहस नही जुटा पा रहा है। नक्सलवादियों के इस सफलता के लिए शासन-प्रशासन भी उन्हें रिवार्ड प्रदान कर दिया है। स्थानीय जनप्रतिनिधियों ने भी नेशनल पार्क के क्षेत्र को नक्सलवादियों का सेफजोन स्वीकार कर इसे लगभग पूरी तरह से भुला दिया है। जिन्हें नक्सलवादियों के पहले विरोध का इनाम मिलना चाहिए था, तथा इतिहास के पन्नो में सुनहरे अक्षरों में दर्ज होना चाहिए था उन्हें शासन-प्रशासन की मेहरबानी से जनजगण-सलवाजुड़ुम के साथ नक्सलवाद के विरोध का दंड भोगना पड़ रहा है। नेशनल पार्क क्षेत्र के वनवासियों-ग्रामीणों के शहादत की याद में यदि तत्कालीन शासन-प्रशासन आवापल्ली से उसूर, आवापल्ली से एलमिडी, भोपालपटनम से बारेगुड़ा, धनोरा से फरसेगढ़, तोएनार मोरमेंड, मोरमेंड से सोमनपल्ली, कुटरू से फरसेगढ़, करकेली से बेदरे तक कि सडक़ का निर्माण ही कर देती तो यह बड़ा उपकार होता और स्थानीय वनवासियों के शहादत का सम्मान होता लेकिन इसके स्थान पर उपरोक्त मार्गो पर सडक़ बनाना तो दूर की बात है, वहां झांकना भी उचित नही समझते है, चाहे वह जनप्रतिनिधि हो या फिर प्रशासन, यहां सडक़, बिजली, पानी की व्यवस्था नही हो सकती ऐसा कुछ भी नही है। जब बीजापुर के जांगला में प्रधानमंत्री की पहुच हो सकती है, दोरनापाल, जगरगुंडा में सडक़ बन सकता है, तो इसके उपेक्षा का एक कारण नजऱ आता है वह नक्सलवादियों के विरोध का पहला क्षेत्र जहां से विरोध मुखर हुआ था।
इस संबंध में जब नक्सलवाद के अनुभवी पुलिस अधिकारी डीआईजी रतनलाल डांगी से चर्चा करने पर उन्होंने अपना अनुभव साझा करते हुए कहा कि इसके स्थायी समाधान की दिशा में कार्य करने की आवश्यकता है, उन्होंने एक उदाहरण देते हुए बताया कि किसी बच्चे को मार-पीटकर सुधारा नही जा सकता उसी तरह नक्सलवाद का स्थायी समाधान सिर्फ बंदूक नही हो सकता है, लेकिन परिस्थितियां जैसी है उससे तो निपटना ही होगा। पुलिस-सुरक्षाबल अपना कार्य कर रही है, इसके साथ ही इसके स्थायी समाधान की दिशा में आगे बढ़ाना होगा। मैंने देखा कि बस्तर संभाग का यह क्षेत्र अबोध बालक के समान है, जिसे यह भी पता नही है कि आग से जलते है, पानी मे डूब सकते है, यहां अशिक्षा सबसे बड़ा बाधक है, नक्सलवाद के उन्मूलन में। यहां वनवासी-ग्रामीणों में अशिक्षा का अंधकार इतना अधिक है कि उन्हें यह भी नही पता कि क्या अच्छा हो सकता है, क्या बुरा हो सकता है, या हमे क्या करना चाहिए। इसका स्थायी समाधान पहला और अंतिम एक मात्र शिक्षा ही है। शिक्षा क्वालिटी की उपलब्ध करवाना होगा। शिक्षकों की उपलब्धता आवश्यक है। एलकेजी से लेकर कॉलेज तक कि शिक्षा स्थानीय स्तर पर मिलनी चाहिए। इसका दूरगामी प्रभाव देखने को मिलेगा।