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गुजरात: आदिवासियों के संघर्ष की कहानी, ‘एक तरफ बच्चों के लिए, दूसरी तरफ ज़मीन के लिए लड़ाई’

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तापी ज़िले के सोनगढ़ तालुका के मुख्य मार्ग से क़रीब तीन किलोमीटर दूर जंगल के बीच सुमनभाई वसावा का खेत है.

इस खेत में वो फसल उगा रहे हैं. सालों से उनके पूर्वज यहां की ज़मीन पर खेती कर जंगल के साथ तालमेल बिठाकर रह रहे हैं.

सुमन का कहना है कि उन्हें इस ज़मीन पर खेती करने का अधिकार साल 2013 में मिला था, हालांकि वह अब तक इस ज़मीन के मालिक नहीं बन सके हैं. उन्हें डर है कि सरकार निकट भविष्य में जंगल की उनकी ज़मीन हड़प सकती है.

सुमनभाई की तरह, गुजरात में कई आदिवासी जंगल की ज़मीन पर खेती करते हैं. किसी को अधिकार पत्र मिला है तो किसी की अर्जी आज भी लंबित है.

भारत सरकार के वन अधिकार अधिनियम 2006 के प्रावधान, आदिवासी समुदायों को अपनी पुश्तैनी ज़मीन पर मालिकाना हक़ का अधिकार देते हैं.

हालांकि, इस क़ानून के लागू होने के कारण आदिवासी समुदाय और राज्य सरकार के बीच टकराव पैदा हो गया और मामला गुजरात हाईकोर्ट में चला गया.

क्या कहता है वन अधिकार क़ानून?

इस अधिनियम के तहत भारत सरकार ने वन क्षेत्रों में रहने वाले उन आदिवासी समुदाय के किसानों को जंगल की ज़मीन पर खेती करने का अधिकार दिया जिनकी संस्कृति और आजीविका जंगल पर निर्भर करती है.

इस अधिनियम के पारित होने के बाद, गुजरात सरकार को इसके कार्यान्वयन के लिए नीतियां और नियम बनाने के अधिकार दिए गए थे. गुजरात सरकार ने ये नीतियां साल 2007 में बनाईं.

आदिवासी समुदाय के कुछ लोगों ने इन नियमों के ख़िलाफ़ गुजरात हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया.

इस क़ानून के अनुसार, देशभर में 13 दिसंबर, 2005 से पहले ज़मीन को जोतने वाला आदिवासी समुदाय राजस्व पावती जैसे किसी भी प्रमाण के आधार पर उस ज़मीन के मालिकाना हक़ के लिए अर्ज़ी दे सकता है और सरकार को उस ज़मीन का अधिकार आदिवासी समुदाय को हस्तांतरित करना होगा.

हालांकि ज़मीन हस्तांतरण के इस प्रावधान में कई गड़बड़ियां पाई गईं, जिसके चलते गुजरात का आदिवासी समुदाय और सरकार सालों से क़ानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं.

गुजरात के आदिवासी क्षेत्र के कई ज़िलों में आदिवासी समुदाय के हज़ारों आवेदन गुजरात सरकार के पास लंबित हैं.

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इमेज कैप्शन,दशरथभाई वसावा आत्महत्या कर लिया. उनके पास ज़मीन अधिकार पत्र था.

क्या सरकारी फ़ाइलों पर और ज़मीन पर हालात अलग हैं?

बीबीसी गुजराती सेवा की एक टीम ने इस क़ानून के कार्यान्वयन और आदिवासी समुदायों के संघर्षों के बारे में जानने के लिए तापी ज़िले के गांवों का दौरा किया.

चुनाव के समय इन क्षेत्रों में वन भूमि अधिकार एक प्रमुख मुद्दा है.

कई किसान तापी ज़िले के सोनगढ़ तालुका के पास इसी तरह जंगल की ज़मीन पर खेती करते हैं, उनमें से कुछ को क़ानून के अनुसार अधिकार पत्र मिले हैं, कुछ लोग अभी भी इंतजार में हैं.

इस ज़मीन की खेती को लेकर क्षेत्र के आदिवासियों और वन विभाग के बीच अक्सर टकराव की खबरें आती रहती हैं.

आदिवासी समुदाय के 19 लोगों द्वारा कलेक्टर कार्यालय में दर्ज कराई गई शिकायत के अनुसार, वन विभाग ने उन्हें ज़मीन पर खेती करने से रोका और मारपीट की.

आदिवासी समुदाय के लोगों कादावा है कि इसके कारण एक स्थानीय नेता और वन ज़मीन अधिकार पत्र धारक दशरथभाई वसावा ने आत्महत्या कर ली.

उनके परिवार का आरोप है कि दशरथभाई ने वन विभाग की प्रताड़ना के कारण यह कदम उठाया. हालांकि समाचार लिखे जाने तक पुलिस ने इस संबंध में वन विभाग के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज नहीं की है.

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‘अधिकार पत्र के बावजूद खेती नहीं करते देते’

दशरथभाई के बेटे लक्ष्मण वसावा ने बीबीसी गुजराती को बताया, “हमने इस ज़मीन पर क़र्ज़ लिया था और हम अपनी किश्त नहीं चुका पाए और मेरे पिता ने आत्महत्या कर ली क्योंकि हमें इस ज़मीन पर खेती नहीं करने दी गई.”

वो कहते हैं, “मैं अब थक गया हूं, एक तरफ मुझे अपने बच्चों और परिवार का पेट पालना है और दूसरी तरफ अपनी ज़मीन हासिल करने के लिए सरकार से लड़ना है. मुझमें ताक़त ही नहीं बची है.”

“मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अपील करता हूं कि हम आदिवासियों को हमारी ज़मीन दें, हमें अतिरिक्त ज़मीन नहीं चाहिए. साहब, जितनी ज़मीन हमारी है, हमें उतनी दे दीजिए.”

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एक अन्य आदिवासी नेता और किसान दिनेशभाई वसावा कहते हैं, “मौजूदा हालात ऐसे हैं कि कुछ ग्रामीण जब अपनी ज़मीन पर खेती करने जाते हैं तो उन्हें वन अधिकारियों द्वारा पीटा जाता है. मवेशियों को ज़मीन पर छोड़ना, उनके खेतों में आग लगाना और उनकी झोपड़ियों को तोड़ना आम बात है.”

“ऐसे में आदिवासी खेती करें या इन लोगों के ख़िलाफ़ संघर्ष चलाएं? हाईकोर्ट के आदेशों की भी अवहेलना की जा रही है, लेकिन कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा है.”

दशरथभाई गुजरात हाईकोर्ट के 2013 के फ़ैसले में याचिकाकर्ता थे. उस मामले में दशरथभाई की ओर से कोर्ट में पेश हुए वरिष्ठ वकील आनंद याग्निक कहते हैं, “पिछली बार जब दशरथभाई मेरे पास आए थे, तो उन्होंने कहा था कि वन विभाग के अधिकारियों का उत्पीड़न उनकी जान ले लेगा. अंत में, वही हुआ.”

वो कहते हैं, “गुजरात सरकार और वन विभाग की फ़ाइलों में सब ठीक है, इन लोगों को उनकी ज़मीन पहले ही सौंपी जा चुकी है. लेकिन ज़मीनी हकीक़त इसके उलट है.’

वो कहते हैं, “यह एक अलग तरह का गुजरात मॉडल है, जहां आदिवासियों को परेशान किया जा रहा है.”

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क्या कहना है प्रशासन और वन विभाग का?

इस घटना को लेकर बीबीसी ने तापी पुलिस अधीक्षक राहुल पटेल से बात की.

उन्होंने कहा, “दशरथभाई की आत्महत्या का ज़मीन और वन अधिकारियों से कोई लेना-देना नहीं है. प्रारंभिक जांच में पता चला है कि घरेलू झगड़े के कारण उन्होंने आत्महत्या की, हालांकि उसके बेटे ने अपने जवाब में कहा है कि इसके लिए वन विभाग के अधिकारी ज़िम्मेदार हैं, इसलिए हम उस दिशा में भी जांच कर रहे हैं. अगर सबूत मिलते हैं, तो हम उसी के अनुसार जांच आगे बढ़ाएंगे.”

इस पर वन विभाग के तत्कालीन प्रभारी तापी डीसीएफ़ओ (डिप्टी कंज़र्वेटर ऑफ़ फ़ॉरेस्ट) अरुण कुमार ने सफ़ाई दी.

मीडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा, “हमने पूरी जांच पड़ताल कर अपनी रिपोर्ट सौंपी है. मारपीट जैसी कोई बात नहीं थी.”

“वो लोग अवैध ज़मीन की जुताई करने आए थे और हमारे कर्मचारियों ने उन्हें रोका. कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं हुआ. हम आदिवासी समाज के साथ तालमेल बिठाकर काम करते हैं.”

उन्होंने यह भी कहा कि वन-संरक्षण में आदिवासी समाज के लोग भी सरकार के साथ सहयोग करते हैं.