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बस्तर गोंचा पर्व में तुपकी चलाने की अनोखी परंपरा

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बस्तर गोंचा पर्व में भगवान जगन्नाथ स्वामी के सम्मान में तुपकी चलाने की अनोखी परंपरा बस्तर गोंचा पर्व को विश्व में अलग स्थान दिलाता है। बस्तर गोंचा पर्व के लिए नानगूर क्षेत्र के आदिवासियों के द्वारा तुपकी बनाने का कार्य गोंचा पर्व के एक-दो माह पूर्व प्रारंभ कर दिया जाता है। तुपकी गोंचा पर्व और आदिवासी संस्कृति का समन्वय है। बस्तर गोंचा पर्व में भगवान जगन्नाथ स्वामी के सम्मान में बस्तर के आदिवासी समुदाय के द्वारा गार्ड आफ आनर के तौर पर 610 वर्ष पूर्व शुरू हुई परंपरा आज भी जारी है। इसे संरक्षण की आवश्कता है। यदि इस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो बस्तर के अनेक आदिवासी परंपराओं की तरह तुपकी बनाने की परंपरा इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह जायेगी।

यह परम्परा सिर्फ बस्तर गोंचा पर्व में ही देखने को मिलता है जिससे बस्तर गोंचा पर्व की छटा निराली होती है । बस्तर गोंचा पर्व में रथ यात्रा के दौरान आदिवासियों के द्वारा भगवान जगन्नाथ स्वामी के सम्मान में बनाये जा रहे तुपकी की सलामी दी जाती है। तुपकी चलाये जाने की परंपरा शताब्दियों से विश्व में सिर्फ बस्तर गोंचा पर्व में ही देखा जा सकता है। आदिवासी समुदाय के द्वारा भगवान जगन्नाथ स्वामी के प्रति आगाध श्रद्धा का प्रतीक रहा बस्तर गोंचा पर्व में चलाये जाने वाले सलामी के लिए तुपकी बनाने की यह परंपरा अब सिमटकर मात्र नानगूर क्षेत्र के आदिवासियों तक रह गयी है,जिसे आदिवासी अपनी परंपरा को बनाये रखते हुए आज भी तुपकी बनाने का कार्य कर रहे हैं। इससे पूर्व बस्तर संभाग के अन्य आदिवासी क्षेत्रों से भी तुपकी बनाने और भगवान जगन्नाथ को सलामी के लिए जगदलपुर गोंचा भाटा में पहुंचते थे लेकिन विगत कुछ वर्षो से इनकी संख्या में भारी गिरावट देखी गई है ।

तुपकी का शाब्दिक अर्थ, बस्तर में बंदूक को तुपक कहा जाता है। तुपक शब्द से ही तुपकी शब्द बना यहां बस्तर गोंचा पर्व रथ यात्रा के दौरान बच्चे, युवक-युवतियां रंग-बिरंगी तुपकियां लेकर भगवान जगन्नाथ के रथ के आसपास सलामी देते नजर आते हैं। इस अनोखी परंपरा में अंचल के बडी संख्या में आदिवासी तथा गैरआदिवासी श्रद्धालु यहां जुटते हैं, जिससे नगर में मेले सा माहौल बना रहता है। जगदलपुर ने बस्तर गोंचा पर्व में तुपकी चलाने की परंपरा बस्तर गोंचा पर्व का मुख्य आकर्षण है। तुपकी से निकलने वाली ध्वनि दीवाली के पटाखे के तरह सारा शहर गूंज उठता है। बंदूक रूपी तुपकी पोले बांस की नली से बनाई जाती है, जिसे ग्रामीण अंचल के आदिवासियों के द्वारा तैयार किया जाता है। इस तुपकी को तैयार करने के लिए ताड़ के पत्तों, बांस की खपच्ची तथा रंग-बिरंगी कागज की पन्नियों के साथ तुपकियों को सजाया जाता है। तुपकियों में लकडिय़ों का इस्तेमाल करते हुए इसे बंदूक का रूप भी दिया जाता है।

आदिवासी अपने साथ तुपकियों में से एक अपने पास रखकर शेष लोगों को बेच देते हैं। इससे उन्हें आर्थिक लाभ होता है। आदिवासी महिलाएं तुपकी के लिए उपयोग में आने वाली गोली जिसे स्थानीय बोली में पेंग कहा जाता है बेचती नजर आती हैं। पेंग तुपकी की गोली के रूप में उपयोग किया जाता है। यह एक जंगली लता फल जो मटरदाने के समान ठोस छर्रानुमा होता है। इस फल का संस्कृत-हिन्दी नाम मलकांगिनी है, जो आषाढ़ में महीने में जंगलों में लताओं में फलती-फूलती है। तुपकी बनाने वाले कलाकार नानगूर क्षेत्र के मांझीगुड़ा पारा के ईश्वर, सावद नाग, सोमू, रूप सिंग ने बताया कि पहले बस्तर संभाग के अनेक क्षेत्रों में तुपकी बनाया जाता था, लेकिन वर्तमान में मात्र नानगूर क्षेत्र के छोटे-मुरमा, मांझीगुड़ा, बोदरागुड़ा, चिलकुटी के चंद परिवारों के द्वारा तुपकी बनाने का कार्य किया जा रहा है। तुपकी बनाने के लिए जिस बांस की आवश्यकता होती है। वह बहुत मुश्किल से मिल पाता है वन विभाग की दिक्कत भी रहती है इसके अलावा तुपकी में लगने वाले ताड़ के पत्ते भी बड़ी मुश्किल से मिल पा रहे हैं।

महीनों तक तुपकी बनाकर बेचने से होने वाली आय बहुत कम होने के कारण तथा सामग्री के महंगे और मुश्किल से मिलने के कारण धिरे-धिरे लोग तुपकी बनाना छोड़ते जा रहे हैैं। उन्होंने कहा कि पहले पूर्वज आस्था के चलते तुपकी बनाया करते थे, लेकिन वर्तमान में महंगाई सहित वनो से मिलने वाले बांस की उपलब्धता नहीं होने के चलते तथा अनेक आर्थिक परेशानियों के कारण तुपकी बनाने की कला कम होकर चंद परिवारों तक सिमट गया है,जिसका संरक्षण के बिना आगे इसे जारी रखना संभव नहीं है। 360 घर आरण्यक ब्राम्हण समाज ने अपने अराध्य के सम्मान में चलाये जाने वाली तुपकी की परंपरा को विलुप्त होने से बचाये रखने के लिए तुपकी बनाने वाले कुछ कलाकारों को प्रतिवर्ष प्रोत्साहन स्वरूप सम्मानित करने का निर्णय लिया गया है ।

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