नक्सलगढ़ के तौर पर पहचान रखने वाले दंतेवाड़ा में हो रहे विधानसभा उपचुनाव में नक्सलवाद चुनावी मुद्दा नहीं है। कांग्रेस, भाजपा, सीपीआइ, जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़, बसपा समेत सभी दलों के नेता इस मामले पर चुप्पी साधे हुए हैं। नक्सलवाद पर राजनीतिक दलों का एजेंडा बेहद सतही दिखता है। सीपीआइ और जकांछ जैसे दल नक्सल समस्या के समाधान की बात करते जरूर हैं पर कोई रोडमैप नहीं सुझाते।
नक्सलवाद पर यह खामोशी तब है जब फोर्स चुनाव के दौरान नक्सली हिंसा को लेकर चिंतित और सतर्क नजर आती है। बास्तानार घाट में जहां से दंतेवाड़ा शुरू होता है वहीं फोर्स ने चेकपोस्ट लगा रखा है।
यहां से गुजरने वाली हर गाड़ी का नंबर रजिस्टर में दर्ज किया जा रहा है। नक्सलियों से निपटने के लिए चेकपोस्ट के अगल बगल जंगल में जगह जगह जवान तैनात हैं। घाट में हर किलोमीटर पर रोड ओपनिंग पार्टी तैनात है। दंतेवाड़ा में चुनावी हिंसा का इतिहास रहा है।
नक्सल हमले में कांग्रेस व भाजपा प्रत्याशियों ने खोया है अपना-अपना सुहाग
कांग्रेस व भाजपा दोनों ने जिन्हें उपना प्रत्याशी बनाया है वह नक्सल हमले में अपना सुहाग खो चुकी हैं। कांग्रेस ने यहां से देवती कर्मा को टिकट दिया है। उनके पति महेंद्र कर्मा को झीरम नरसंहार में नक्सलियों ने मार दिया था। झीरम कांड में कांग्रेस के उस दौर के अधिकांश बड़े नेता नक्सलियों की फायरिंग में मारे गए थे।
भाजपा ने ओजस्वी मंडावी को अपना प्रत्याशी बनाया है। ओजस्वी के पति भीमा मंडावी दंतेवाड़ा से भाजपा विधायक चुने गए थे। लोकसभा चुनाव के दौरान नक्सलियों के बारूदी विस्फोट में भीमा की मौत हो गई थी। इसके बावजूद यहां नक्सलवाद की चर्चा सहानुभूति के वोटों के ध्रुवीकरण के प्रयासों तक ही सीमित है। नक्सलवाद की चर्चा छेड़ो तो नेता तत्काल सतर्क हो जाते हैं।
कई नेताओं की हत्या
राजनीतिक हत्यायों के लिए बदनाम नक्सली इस इलाके में कई नेताओं की हत्या कर चुके हैं। झीरम हमले में कांग्रेस नेता की हत्या से पहले नक्सली उनके आधा दर्जन से अधिक रिश्तेदारों को मार चुके हैं। 2018 के विधानसभा चुनाव के पहले नीलावाया गांव में उन्होंने दूरदर्शन के एक कैमरामैन की हत्या की जिसपर बहुत बवाल हुआ था। 2008 के चुनाव में नकुलनार के दो भाजपा नेताओं की हत्या नक्सलियों ने की थी।
नक्सलवाद पर उलझन
गत विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस ने बातचीत के जरिये नक्सल समस्या के हल का वादा किया था। हालांकि बाद में सरकार दुविधा में फंसती नजर आई। सीपीआइ कांग्रेस को याद दिला रही है कि निर्दोष आदिवासियों की रिहाई के मुद्दे पर अब तक कोई काम नहीं हुआ है। इधर काश्मीर से धारा 370 व 35 ए हटाने के बाद आतंकवाद और नक्सलवाद पर भाजपा और आक्रामक दिखने की कोशिश कर रही है। हालांकि खुलकर बयान कोई नहीं दे रहा है।