तेलंगाना और छत्तीसगढ़ की सरहद पर स्थित बीजापुर जिले की अंतिम छोर पर बसा गांव पामेड़ माओवाद के दंश से उबर रहा है. ये गांव अब विकास की नई इबारत की गढ़ता जा रहा है. आजादी के बाद पहली बार पामेड़ की दूरी मील के पत्थर से नापी जा सकती है. दशकों बाद अलग-थलग और माओवाद समस्या से घिरे इस इलाके में पहली बार सड़क के जरिए विकास की किरणों ने अपनी दस्तक दी है.
माओवादियों के इंटरस्टेट कॉरिडोर में पामेड़ तक चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में पहली दफा प्रशासन और पुलिस ने सड़क पहुंचाने के लिए पूरी ताकत झोंक रखी थी, नतीजा यह रहा कि महज 6 महीनों में पामेड़ को तेलंगाना से जोड़ती 11 किमी पक्की सड़क अब बनकर तैयार है. बता दें कि सालभर पहले तत्कालीन कलेक्टर डॉ. अययाज तम्बोली ने अंतिम छोर माने जाने वाले इस गांव को सड़क से जोड़कर विकास पहुंचाने के मकसद से पूरा खाका तैयार किया था. करीब 1500 जवानों की सुरक्षा में दशकों बाद पामेड़ गांव पक्की सड़क से जैसे-तैसे जुड़ पाया.
सड़क बनने के बाद गांव वालों अब खुशी से फूले नहीं समा रहे हैं. गांव में प्रवेश करते ही सड़क पर वेल्कम टू पामेड़ की लिखावट पर नजर पड़ती है. फटफटी भर दौड़ते ऑटो रिक्शा, टैक्टर, एम्बुलेंस की आवाजाही ने दशकों से पिछड़े माने जाने वाले इलाके की तस्वीर पूरी तरह बदली नजर आ रही है. वैसे पामेड़ तक सड़क की कल्पना आसान नहीं थी. शुरूआती चरण में जवानों को नक्सली हमलों का सामना भी करना पड़ा था. चार महीनों के दरम्यान अलग-अलग घटनाओं में एक जवान की शहादत और एक जवान बुरी तरह घायल हुआ था. करीब 9 करोड़ की लागत से यह सड़क अब लगभग बनकर तैयार है, हालांकि पिछले बजट में भी राशि मंजूर की गई थी, लेकिन नक्सली मनाही और सुरक्षा के अभाव में ठेकेदारों ने अपने हाथ खड़े कर दिए थे.
….खौफनाक है पामेड़ का इतिहास
बता दें कि 2007 में पामेड़-तिप्पापुर के मध्य बरसाती नाले के समीप माओवादियों के एम्बुश में फंसकर 9 जवानों की शहादत हुई थी. नक्सलियों ने हमले को उस वक्त अंजाम दिया था, जब कुछ जवान चेरला से पैदल पामेड़ आ रहे थे. इसके अलावा नवरात्रि के दौरान मंदिर दर्शन के लिए निकले दो जवानों पर भी नक्सलियों ने हमला कर उनकी हत्या कर दी थी. फिर 2016 में आरओपी ड्यूटी पर निकले जवानों पर नक्सलियों ने पामेड़ बस्ती के पास हमला किया था, जिसमे एक जवान शहीद हो गया था. इन घटनाओं के चलते पामेड़ में हालात बेहद खराब हो गए थे.
प्रतिकूल हालात के चलते पामेड़ में तैनात जवानों के लिए भी उनकी तैनाती किसी खुली जेल से कम नहीं लगती थी. कभी सड़क के अभाव में हवाई मार्ग की निर्भरता के चलते जवानों का दर्द भी उनकी जुबान पर आ जाया करता था. उन्हें खुशी हो या गम ड्यूटी से आजादी नहीं मिल पाती थी.
पामेड़ 1984 में चौकी के रूप में अस्तित्व में आया था, जिसे 1989 में थाना बनाया गया था. छोटी से टेकरी में बने थाने में जवान मोर्चे पर तैनात रहते आए हैं. जवानों के लिए सबसे बड़ी तकलीफ यह थी कि वे थाने से बाहर एक या दो बार ही निकल पाते थे. वह भी रोजमर्रा की सामान खरीदने के लिए. हालांकि सड़क बनने के बाद भी पामेड़ की तेलंगाना पर निर्भरता की विडंबना तब तक खत्म नहीं होगी, जब तक कि यह सड़क बासागुड़ा तक नहीं बन जाती. फिर भी पड़ोसी राज्य से सीधे जुड़ने के बाद पामेड़ सहित आस-पास के दर्जनों गांवों को बड़ी राहत की उम्मीद है. सड़के जरिए सरकारी अमलों की आमदरफत बढ़ने के साथ-साथ विकास से जुड़ी योजनाओं की कनेक्टिविटी का दायरा जरूर बढ़ेगा.