छत्तीसगढ़ की बस्तर लोकसभा सीट को कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा का गढ़ कहा जाता रहा, लेकिन हकीकत यह है कि बस्तर के आदिवासी कब किसे वोट देंगे कोई नहीं जानता। सीधे सरल आदिवासियों को राजनीति से कोई खास मतलब नहीं होता हालांकि उनकी राजनीतिक समझ पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। 1952 में बस्तर में हुए पहले चुनाव में निर्दलीय मुचाकी कोसा की विजय हुई। मुचाकी कोसा के गांव में आज भी पक्की सड़क नहीं है और उनके परिजन खपरैल वाले घर में रहते हैं।
दरअसल बस्तर सियासत का विलय तो 1948 में भारतीय गणराज्य में हो चुका था पर बस्तर के अंतिम राजा प्रवीरचंद्र भंजदेव की कांग्रेस से जमती नहीं थी। वह आदिवासियों के मुद्दे पर लगातार सरकार के खिलाफ रहे। विधानसभा का चुनाव हो या लोकसभा का, प्रवीरचंद्र भंजदेव जिसे खड़ा कर देते वह निर्दलीय जीत जाता था। 1955-56 में प्रवीर कांग्रेस में शामिल हुए और 1957 के चुनाव में कांग्रेस के सुरती किस्टैया की विजय हुई।
हालांकि इसके तुरंत बाद राजा प्रवीर का कांग्रेस से फिर अलगाव हो गया और इसके बाद उनकी जिंदगी में और उनके जाने के बाद भी कुछ समय तक राजा के प्रत्याशी जीतते रहे। 1952-67 में लखमू भवानी निर्दलीय जीते। 1966 में प्रवीर की हत्या हो गई फिर भी 1967 में झाडूराम सुंदरलाल और 9171 में राजा के खास रहे लंबोदर बलियार संसद तक पहुंचे। इंदिरा गांधी के कार्यकाल में लगे आपात काल का असर बस्तर के चुनावों पर दिखा जब 1977 का चुनाव जनता पार्टी के डीपी शाह जीतने में कामयाब रहे।
हालांकि 1980 में कांग्रेस ने फिर वापसी की और इसके बाद 1991 तक मानकूराम सोढ़ी लगातार तीन बार सांसद रहे। आदिवासियों ने भले ही तीन मौका कांग्रेस को दिया पर कांग्रेस का सिंबल स्थाई नहीं रह पाया। अब पिछले चार चुनाव से यहां भाजपा का सिंबल काम कर रहा है। सुदूर इलाकों में आदिवासियों से अब भी पूछो कि चुनाव में कौन खड़ा है तो नहीं बता पाएंगे पर उन्हें यह पता है कि किस चुनाव चिन्ह पर वोट देना है।
जब एक मुद्दे ने बदल दिया था माहौल
1996 के चुनाव में बस्तर से कांग्रेस के बागी महेंद्र कर्मा चुनाव मैदान में निर्दलीय उतरे। कांकेर के कांग्रेस नेता अरविंद नेताम ने बस्तर में संविधान की छठवीं अनुसूची लागू करने की वकालत की थी। कर्मा ने इसका विरोध किया और गैर आदिवासियों के चहेते बन गए। उनका अपना आदिवासी वोट बैंक था ही। लिहाजा कर्मा जीत गए। इसके बाद से कांग्रेस बस्तर में कभी नहीं जीत पाई है।
प्रत्याशी की तलाश भी मुश्किल काम था
आदिवासियों के लिए आरक्षित बस्तर सीट पर कभी हालत यह थी कि पार्टियों को प्रत्याशी भी नहीं मिलते थे। मानकूराम सोढ़ी से लेकर बलीराम कश्यप तक स्कूल शिक्षकों को चुनकर पार्टियों ने मैदान में उतारा। जब तक बस्तर के राजा प्रवीर रहे वे अपने किसी भी मुलाजिम पर हाथ रख देते थे। जिसपर हाथ रखते उसकी किस्मत चमक जाती। इसके बावजूद चुनाव लड़ने के लिए आदिवासी आसानी से तैयार नहीं होते थे। अब हालत यह है कि हर दल में टिकट की मारामारी रहती है।
बकरा भात और माटी किरिया-
बस्तर में चुनाव जीतने के लिए गांव में बकरा भात की पार्टियां देने का चलन है। गांव की देवगुड़ी में पूजा अर्चना के बाद पूरे गांव का सामूहिक भोज होता है। इसमें महुए की पारंपरिक शराब भी शामिल की जाती है। भोज के बाद आता है माटी किरिया का वक्त। आदिवासी माटी किरिया यानी मिट्टी की शपथ का बड़ा मान रखते हैं। नेताओं की कोशिश होती है कि उन्हें माटी किरिया के लिए मना लिया जाए, वैसे यह आसान काम नहीं है।
दूर गांवों की बजाय हाट-बाजार में प्रचार
बस्तर की संस्कृति में साप्ताहिक बाजारों का बड़ा महत्व है। आदिवासी दैनंदिन उपयोगिता की सामग्री के लिए इन्हीं बाजारों पर आश्रित होते हैं। हर बड़े गांव में साप्ताहिक बाजार लगता है। यहां आदिवासी वनोपज और पशु बेचते हैं और अपनी जरूरत का सामान खरीदते हैं। इन बाजारों में आसपास के दर्जनों गांवों के आदिवासी पहुंचते हैं। जंगल में बसे गांवों तक जाना मुश्किल है इसलिए बच्चों के टीकाकरण जैसी सरकारी योजनाएं हों या फिर चुनाव प्रचार, बाजार बड़ा माध्यम होता है।