आजादी के बाद 1947 में फरसपाल परगना के बोड़ा मांझी नामांकित विधायक बनाए गए। इसके बाद दंतेवाड़ा विधानसभा के लिए पहला चुनाव वर्ष 1952 में बोड़ा मांझी ही लड़े थे। इस बार वे राजा प्रवीरचंद्र भंजदेव के दल से मैदान में थे। उन्हें चुनाव चिन्ह शेर मिला था। तब लोकतंत्र के बारे में लोगों को ज्यादा जानकारी नहीं थी।
प्रचार का जिम्मा राजा ने मांझी- चालकियों को सौंप दिया गया था। इस चुनाव में बोड़ा मांझी की एकतरफा जीत हुई थी। विपक्ष में कौन था, इससे किसी को कोई मतलब नहीं था। इसलिए मुझे भी विरोधी उम्मीदवारों के नाम याद नहीं
87 वर्षीय ताराचंद सुराना ने यह बातें बड़े उत्साह के साथ बताई। पुराने दिनों को याद करते हुए वे कहते हैं तब मुझे राजनीति में ज्यादा रुचि नहीं थी लेकिन बोड़ा मांझी से परिचय था। इसलिए मेरा झुकाव भी राजा पार्टी में था। लेकिन अफसोस तब मैं 20 साल की उम्र होने के बावजूद वोट नहीं दे सका। तब वोट देने के लिए 21 वर्ष की उम्र होना तय था। इस बात का मलाल आज भी है। ताराचंद सुराना तब कपड़ा का व्यवसाय इलाके में करते थे।
राजा के एक आदेश पर जुटती थी जनता, खर्च तो न के बराबर
चुनाव प्रचार और खर्च के सवाल पर ताराचंद के चेहरे पर बड़ा सुकून नजर आ रहा था। उन्होंने कहा कि तब ऐसा प्रचार नहीं होता था, तो खर्च क्या होगा। राजा के एक आदेश पर पूरी जनता जुटती थी। फिर भी मांझी-मुखिया हाट- बाजार में ग्रामीणों को चुनाव के संबंध में जानकारी देकर शेर छाप पर मुहर लगाने कहते थे। मतदान के लिए भी गांवों के थानागुड़ी को केंद्र बनाया गया था, जहां दिन भर ग्रामीणों की आना-लगा रहता था।
बड़े भाई के पास आते थे नेता
ताराचंद बताते हैं कि तब मेरे बड़े भाई हस्तीमल सुराना के पास नेताओं का आना-जाना लगा रहता था। वे भी राजा के करीबी लोगों से मेल-मिलाप रखते थे और जनसंघ की बैठकों में शामिल होते थे। बाद में वे कांग्रेस में शामिल होने के बाद अविभाजित बस्तर में कांग्रेस के जिलाध्यक्ष बने।
बोड़ा मांझी ने नेहरुजी को किया था शेर शावक भेंट
बुजुर्ग ताराचंद बताते हैं कि 1954 में जब देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु जगदलपुर आए थे, तब बोड़ा मांझी ने उन्हें शेर के दो शावक भेंट किए थे, जिन्हें नेहरुजी ने सहर्ष स्वीकारा था और अपने साथ दिल्ली ले गए थे।