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खुद की तरक्की का मूलमंत्र
यह बड़ा ही कठिन चुनाव था लेकिन जनता ने आखिरकार अब्राहम लिंकन को ही चुना।
बहुत.से लोग उन्हें जीत की बधाई देने पहुंचने लगे। लोगों की भारी भीड़ उनके घर के बाहर जमा हो गई। इन तमाम लोगों में नामचीन व्यवसायी, बड़े-बड़े राजनेता और शहर के अन्य खास लोग भी शामिल थे। लेकिन सब तब हैरत में पड़ गए, जब वहां पहुंचने पर उन्होंने लिंकन को गाय का दूध दुहते हुए पाया। यह अजीब नजारा देखकर सब आपस में बतियाने लगे।
एक ने शिकायती लहजे में दूसरे से कहाए, ”यहां इतने लोग बधाई देने के लिए इकट्ठा हैं और यह महाशय दूध दुहने में व्यस्त हैं।”
एक अन्य बोला, ”यह इतने बड़े इंसान हैं। इस तरह छोटे-मोटे कामों में वक्त जाया करना इन्हें शोभा नहीं देता।”
इतने में कोई और बोल पड़ा, ”जब यह ऐसे बेकार के कामों में लगे रहते हैं तो न जाने जरूरी कामों के लिए समय कैसे निकालते होंगे।”
सभी लिंकन को इस काम में लगे देखकर आश्चर्य में थे। लोगों के बीच इस तरह की कानाफूसी चल ही रही थी कि लिंकन का काम पूरा हो गया। उन्होंने लोगों से बैठने का निवेदन किया। वहां उपस्थित एक व्यक्ति अपनी उत्सुकता न दबा सका और उसने लिंकन से सवाल किया, ”आप अमरीका जैसे बड़े देश के इतने जाने-माने राजनेता हैं। ऐसे में आपको इस तरह के छोटे-मोटे काम करने में संकोच नहीं होता?”
लिंकन ने तपाक से जवाब दिया, ”मुझे संकोच सिर्फ बुरे काम करने में होता है। फिर अपना काम करने में कैसी शर्म, कोई भी काम छोटा-बड़ा नहीं होता। अगर कोई मेरी तरक्की का राज पूछे तो मैं कहूंगा कि स्वावलंबन की इसी आदत ने मुझे इतनी सफलता दिलाई है। देश और इंसान, दोनों स्वावलंबी होकर ही तरक्की कर सकते हैं।”
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जीवन को समर्थ व सुदृढ़ बनाएं
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एक गांव में एक प्रसिद्ध संत का आगमन हुआ। उसी गांव में चार मूर्ख मित्र भी निवास करते थे। संत का स्वागत-सत्कार देख उन्हें बड़ी उत्सुकता हुई, पूछा तो पता चला कि संत ने मौन रहकर गहन तपस्या की है और बहुत-सी सिद्धियों के स्वामी भी हैं।
बस, फिर क्या था, मूर्खों ने सोचा कि सम्मान प्राप्त करने का सबसे आसान उपाय यही है। चारों ने एक दीया लिया और जंगल में एक अंधेरी गुफा ढूंढकर उसमें जा बैठे। निर्णय किया कि मौन रहेंगे तो देखा-देखी सिद्धियां हमारे पास दौड़ी चली आएंगी, फिर सम्मान मिलने में क्या देरी है।
थोड़ा वक्त ही गुजरा था कि दीये की लौ लपलपाने लगी। उनमें से एक बोला, ”अरे कोई दीये में तेल तो डालो।” दूसरा तुरंत बोला, ”बेवकूफ, बातें थोड़ी करनी थीं।”
तीसरा कहने लगा, ”तुम दोनों मंदबुद्धि हो। मेरी तरह चुप नहीं बैठ सकते?”
चौथा भी कहां शांत रहने वाला था, वह बोला, ”सबके सब बोल रहे हो, सिर्फ मैं हूं कि चुप बैठा हूं।” मूर्ख लोग ऐसे ही व्यर्थ के प्रपंचों में समय गंवाते हैं, जबकि बुद्धिमान विवेक का उपयोग कर जीवन को समर्थ व सुदृढ़ बनाते हैं।
सुख-शांति का एकमात्र मार्ग
एक व्यापारी था। वह बहुत धनी था। दुर्भाग्यवश वह कंगाल हो गया। बहुत दुखी होकर वह एक संत के पास गया और उन्हें अपनी आपबीती सुनाकर रोने लगा। संत बोले, ”तुम दुखी हो क्योंकि तुम्हारा सब कुछ चला गया।”
व्यापारी ने उत्तर में हां कहा। संत बोले, ”यदि वह तुम्हारा था तो उसे तुम्हारे पास रहना चाहिए। वह चला कैसे गया?” व्यापारी चुप रहा। संत ने कहा, ”क्या जन्म के समय तुम सारा धन साथ लेकर आए थे?” व्यापारी बोला, ”महाराज, जन्म के समय सब खाली हाथ आते हैं, मैं धन कैसे ला सकता था?”
संत पुन: बोले, ”अच्छा यह बताओ कि मरते समय अपने साथ कितना धन ले जाना चाहते हो?” व्यापारी बोला, ”महाराज, क्यों मजाक करते हैं, मरते समय भी सब खाली हाथ जाते हैं तो मैं धन साथ कैसे ले जाऊंगा?”
संत बोले, ”जब तुम खाली हाथ आए थे और खाली हाथ जाओगे तो परेशान किसलिए होते हो?” व्यापारी ने कहा, ”महाराज, आप सही कहते हैं। परन्तु अपने परिवार का भरण-पोषण मैं कैसे करूं?”
संत बोले, ”जो ईश्वर सबका भरण-पोषण करता है, तुम्हारा भी करेगा। तुम उसी पर भरोसा करके पुरुषार्थ करो। यही सुख-शांति की प्राप्ति का एकमात्र मार्ग है।”
व्यापारी को निष्काम कर्म का मार्ग मिल गया और उसके जीवन के शेष दिन चिंता रहित गुजरे।