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टाटा के ‘फौलादी’ इरादों के आगे अंग्रेजों का गुरूर चूर होने का सबूत है जमशेदपुर…

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बात 100 साल से भी ज्यादा पुरानी है. साल 1914 था और पहले विश्व युद्ध में तोपें गरज रही थीं. ब्रिटिश सरकार जर्मनी-ऑस्ट्रिया और हंगरी के साथ बुरी तरह से जंग में फंसी थी. आधुनिक विश्व का पहला युद्ध यूरोप, अफ्रीका और मध्य पूर्व तक फैल चुका था. ब्रिटिश सरकार बड़े पैमाने पर रसद और युद्धक-साजो सामान की सप्लाई पूरी दुनिया में फैले अपने सैनिकों को कर रही थी. जिस ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य कभी अस्त नहीं होता था, उसका इस महायुद्ध में सब कुछ दांव पर लगा हुआ था. तब की आवागमन व्यवस्था आज जैसी दुरुस्त नहीं थी. पुराने मॉडल के रेलवे से सामान भेजे जाते थे.

इजिप्ट, मेसोपोटामिया और पूर्वी अफ्रीका के मरुस्थलों में तो रेलवे की पटरियां भी नहीं बिछी हुई थी. लेकिन वहां युद्ध की गर्मी तेजी से बढ़ रही थी. इन क्षेत्रों में अपना कब्जा कायम रखने के लिए ब्रिटिश हुकूमत को वहां सबसे पहले और सबसे तेजी से पहुंचना था. इसके लिए अंग्रेज इंजीनियरों ने इन इलाकों में रेल पटरियां बिछाने की योजना बनाई. काम पर अमल भी शुरू हो गया. लेकिन तुरंत उन्हें एक गंभीर बाधा का सामना करना पड़ा. युद्ध में फंसा ब्रिटेन इतनी मात्रा में स्टील का उत्पादन ही नहीं कर पा रहा था कि रेल पटरियां बनाई जा सकें. लड़ाई जारी थी, लेकिन पटरियां बिछाने का काम रुकने लगा था.

झारखंड में बन रहा था फौलादी स्टील

ऐन मौके पर ब्रिटिश सरकार की नजर गई अपने उपनिवेश भारत पर. उन दिनों अविभाजित बिहार (अब झारखंड) के घने जंगलों में एक स्टील कारखाना नया-नया शुरू हुआ था. उस वक्त इस जगह पर छोटानागपुर के जंगलों की रत्नगर्भा धरती में छुपे कच्चे लोहे को पिघलाकर दुनिया का सर्वोत्तम क्वालिटी का फौलादी स्टील बनाया जा रहा था. ये कारखाना था जमशेदजी नौसेरवान जी टाटा का और कारखाने का नाम था टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी लिमिटेड (TISCO).

टाटा के सपनों का मजाक

भारत उस वक्त ब्रिटेन की कॉलोनी थी. ब्रिटेन ने अपनी शर्तों पर TISCO के मालिक जमशेदजी टाटा के बेटे दोराब जी टाटा से स्टील खरीदने का सौदा किया. ये वही अंग्रेज थे जो जमशेदजी को इस स्टील प्लांट के लिए लाइसेंस नहीं दे रहे थे, और इस सपने के लिए जमशेद जी का मजाक उड़ाते थे. एक अंग्रेज अधिकारी ने तो यहां तक कहा था कि टाटा जितना टन स्टील पैदा करेंगे उन्हें खुद ही खाना पड़ेगा. दरअसल ये गुलाम भारत की बदहाल औद्योगिक तस्वीर पर गुमान में डूबे एक अंग्रेज की टिप्पणी थी.

3 लाख टन स्टील, और 2500 KM रेल पटरियां

फिलहाल इस कारखाने से उत्पादन होने वाला सारा स्टील ब्रिटेन भेजा जाने लगा. 1914 से 1918 के बीच इस कारखाने से 3 लाख टन स्टील और लगभग 2500 किलोमीटर तक की रेल पटरियां सप्लाई की गईं. ब्रिटेन ने अपने सैन्य अभियानों में झारखंड की इस खरिज संपदा का निर्दयता से इस्तेमाल किया. ब्रिटेन ने पूर्वी अफ्रीका, मेसोपोटामिया, फिलीस्तीन और मिस्र के दूर-दराज इलाकों में रेल पटरियां बिछाईं और साम्राज्यवाद का अपना मकसद साधा.

फिलीस्तीन में टाटा का स्टील

विश्व युद्ध खत्म होने के बाद जनवरी 1919 में भारत में ब्रितानिया सरकार का सबसे बड़ा अधिकारी और तत्कालीन वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड खुद इस स्टील कारखाने में आया और कंपनी का धन्यवाद किया. साकची में स्थित टाटा स्टील के डायरेक्टर बंगले से कंपनी के अधिकारियों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, “मैं बड़ी मुश्किल से इसकी कल्पना कर सकता हूं कि अगर टाटा कंपनी ने हमें मेसोपोटामिया, इजिप्ट, फिलीस्तीन और पूर्वी अफ्रीका के लिए स्टील नहीं दिया होता तो क्या होता.” इसी दौरान एक कार्यक्रम में उन्होंने इस शहर का नाम साकची से बदलकर देश के महान उद्योगपति जमशेदजी नौसेरवान जी टाटा के नाम पर जमशेदपुर रखा. आज से 100 साल पहले पूर्वी भारत का प्रसिद्ध रेलवे स्टेशन टाटानगर कालीमाटी के नाम से जाना जाता था. लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने ही इसका नामकरण टाटानगर किया.

टाटा का 100 से ज्यादा सालों का सफर

टाटा स्टील की स्थापना 1907 में ही चुकी थी, लेकिन पहली बार यहां से स्टील का उत्पादन 16 फरवरी 1912 को हुआ. तब भारत एशिया का एकमात्र ऐसा देश था, जिसकी अपनी स्टील फैक्ट्री थी. आज के परिपेक्ष्य में भले ही ये बात बहुत छोटी लगे, लेकिन तब चीन और जापान के पास भी ये रुतबा हासिल न था. स्वर्णरेखा और खरकई नदी के किनारे बसे इस शहर ने बीते 100 सालों में लंबा सफर तय किया है. आज यहां चुनाव का शोरगुल है. राज्य के मुख्यमंत्री रघुवर दास खुद यहां से मैदान में हैं. उन्हें चुनौती मिल रही है अपने ही सहयोगी और अब बागी हो चुके सरयू राय से. कांग्रेस की ओर पार्टी के तेजतर्रार प्रवक्ता गोपाल बल्लभ यहां से किस्मत आजमा रहे हैं. चुनाव के बहाने ही इस शहर के दिलचस्प इतिहास को हम आपके सामने ला रहे हैं.

हावड़ा ब्रिज की नींव में टाटा का स्टील

पहले विश्व युद्ध के बाद दूसरे विश्व युद्ध में भी टाटा स्टील अपनी विश्व स्तरीय क्वालिटी की बदौलत अंग्रेजों की नजरों में सम्मान का पात्र बना. हालांकि इस बार भी उसकी मंशा अपने साम्राज्यवादी और शोषणकारी नीतियों के पोषण की थी. दरअसल लंबी चर्चा और मंथन के बाद 1936 में ब्रिटिश सरकार ने कोलकाता में हुगली नदी पर वर्ल्ड क्लास ब्रिज बनाने का फैसला किया. हालांकि पुल बनाने पर सहमति 1910 के दशक में हो चुकी थी, लेकिन प्रथम विश्व युद्ध की वजह से काम शुरू नहीं हो सका. 1926 में हुगली नदी पर सस्पेंशन ब्रिज बनाने का फैसला लिया गया.

…और छिड़ गया दूसरा विश्व युद्ध

पुल का नक्शा मेसर्स रेंडेस पालमेर और ट्रिटन नाम की कंपनी के अधिकारी ने तैयार किया. 1939 में पुल बनाने का ऑर्डर मेसर्स क्लीवलैंड ब्रिज एंड इंजीनियरिंग कंपनी को दिया गया. लेकिन तब तक दुनिया एक बार फिर से युद्ध के मुहाने पर आ चुकी थी. युद्ध के मंच पर दोस्त और दुश्मन बदल चुके थे और नए औजारों और हथियारों के साथ मानवता के विनाश करने को तैयार थे. 1939 में ही द्वितीय विश्व युद्ध की घोषणा हो गई.

Tata steel में आयोजित एक कार्यक्रम में नृत्य करती आदिवासी युवतियां (फोटो-पीटीआई)

हावड़ा ब्रिज को ईंट गारे और लकड़ी से नहीं बनाया जाना था. ब्रिटिश सरकार सिविल इंजीनियरिंग के इस चमत्कारी प्रतीक को सिर्फ स्टील के बड़े-बड़े टुकड़ों से बना रही थी. लेकिन दूसरे विश्व युद्ध के आगाज के साथ ही इंग्लैंड से जो स्टील भारत आना था उसे यूरोप की ओर भेज दिया गया. 26000 टन की स्टील जरूरत में से सिर्फ 3000 स्टील ही भारत पहुंच पाया.

जमशेदपुर से पहुंचा 23000 टन स्टील

ब्रिटिश सरकार ने एक बार फिर से टाटा स्टील को इस पुल के स्टील बनाने को कहा. टाटा स्टील ने मेटल इंजीनियरिंग की शानदार प्रस्तुति करते हुए विशेष किस्म के 23000 टन स्टील का उत्पादन किया. टाटा स्टील की इन मोटी- मोटी दीवारों से हावड़ा ब्रिज की नींव रखी गई, जो आज भी टाटा के नाम के मुताबिक क्वालिटी के सर्वोत्तम प्रतीक हैं.