आज भारत को हम विकासशील देश और निरंतर बढ़ती अर्थव्यवस्था की श्रेणी में मान लें लेकिन आदिवासी अब भी समाज की मुख्य धारा से कटे नजर आते हैं| देश में अभी भी आदिवासी दोयम दर्जे के नागरिक जैसा जीवनयापन कर रहे हैं| कुछ राज्य सरकारें आदिवासियों को लाभ पहुंचाने के लिए उनकी संस्कृति और जीवन शैली को समझे बिना ही योजना बना लेती हैं| ऐसी योजनाओं का आदिवासियों को लाभ नहीं होता, अलबत्ता योजना बनाने वाले जरूर फायदे में रहते हैं| महंगाई के चलते आज आदिवासी दैनिक उपयोग की वस्तुएं भी नहीं खरीद पा रहे हैं| वे कुपोषण के शिकार हो रहे हैं| अत: देश की करीब आठ फीसद आबादी (आदिवासियों की) पर विशेष ध्यान देना होगा | ऋणग्रस्तता , भूमि हस्तांतरण , गरीबी , बेरोजगारी , स्वास्थ्य , मदिरापान , शिक्षा , और संचार जैसी उनकी प्रमुख समस्याओं पर पर गंभीरता से विचार करना आवश्यक है | भारतीय जनजातियों एवं आदिवासी समूहों का यदि हम इनकी भूभागीय भिन्नता के आधार पर विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि इनका प्रवासन अथवा देशांतरण दुनिया के विभिन्न स्थानों से विभिन्न कालखंडों में होता रहा है | प्रजातीय दृष्टि से इन समूहों में नीग्रिटो , प्रोटो-आस्ट्रेलायड और मंगोलायड तत्व मुख्यत: पाए जाते हैं , यद्यपि कतिपय नृतत्ववेत्ताओं ने नीग्रिटो तत्व के संबंध में शंकाएं उपस्थित की हैं | भाषाशास्त्र की दृष्टि से उन्हें आस्ट्रो-एशियाई , द्रविड़ और तिब्बती-चीनी-परिवारों की भाषाएं बोलने वाले समूहों में विभाजित किया जा सकता है | भौगोलिक दृष्टि से आदिवासी भारत का विभाजन चार प्रमुख क्षेत्रों में किया जा सकता है रू उत्तरपूर्वीय क्षेत्र , मध्य क्षेत्र , पश्चिमी क्षेत्र और दक्षिणी क्षेत्र |
उत्तर पूर्वीय क्षेत्र के अंतर्गत हिमालय अंचल के अतिरिक्त तीस्ता उपत्यका और ब्रह्मपुत्र की यमुना-पद्या-शाखा के पूर्वी भाग का पहाड़ी प्रदेश आता है | इस भाग के आदिवासी समूहों में गुरूंग , लिंबू , लेपचा , आका , डाफला , अबोर , मिरी , मिशमी , सिंगपी , मिकिर , राम , कवारी , गारो , खासी , नाग , कुकी , लुशाई , चकमा आदि उल्लेखनीय हैं | मध्यक्षेत्र का विस्तार उत्तर-प्रदेश के मिर्जापुर जिले के दक्षिणी ओर राजमहल पर्वतमाला के पश्चिमी भाग से लेकर दक्षिण की गोदावरी नदी तक है | संथाल , मुंडा , माहली , उरांव , हो , भूमिज , खड़िया , बिरहोर , जुआंग , खोंड , सवरा , गोंड , भील , बैगा , कोरकू , कमार आदि इस भाग के प्रमुख आदिवासी हैं | पश्चिमी क्षेत्र में भील , मीणा , ठाकुर , कटकरी , टोकरे कोली , कोली महादेव , गोंड , कोलाम , हलबा , पावरा (महाराष्ट्र)आदि प्रमुख आदिवासी जनजातियां निवास करती हैं | मध्य पश्चिम राजस्थान से होकर दक्षिण में सह्याद्रि तक का पश्चिमी प्रदेश इस क्षेत्र में आता है | गोदावरी के दक्षिण से कन्याकुमारी तक दक्षिणी क्षेत्र का विस्तार है | इस भाग में जो आदिवासी समूह रहते हैं उनमें चेंचू , कोंडा , रेड्डी , राजगोंड , कोया , कोलाम , कोटा , कुरूंबा , बडागा , टोडा , काडर , मलायन , मुशुवन , उराली , कनिक्कर आदि उल्लेखनीय हैं | नृतत्ववेत्ताओं ने इन समूहों में से अनेक का विशद शारीरिक , सामाजिक तथा सांस्कृतिक अध्ययन किया है | इस अध्ययन के आधार पर भौतिक संस्कृति तथा जीवनयापन के साधन सामाजिक संगठन , धर्म , बाह्य संस्कृति , प्रभाव आदि की दृष्टि से आदिवासी भारत के विभिन्न वर्गीकरण करने के अनेक वैज्ञानिक प्रयत्न किए गए हैं | भारतीय समाजशास्त्री भलीभांति यह जानते हैं कि भारत में हजारों वर्ष पूर्व आदिवासी समुदाय ने ही जंगल , पहाड़ एवं पहाड़ की कन्दराओं और गुफाओं में आश्रय लेने के उपरांत जंगलों को साफ कर खेती करना सीखा , बनैले पशुओं को पालतू बनाया और एक स्थायी सामाजिक जीवन की शुरुआत की | प्रथम भारतीय ग्रामीण सभ्यता की नींव डालने वाले आदिवासी समुदाय ही थे | यही कारण है कि भारत का आदिवासी समुदाय अपने जल जंगल और जमीन से पृथक नहीं रह पाए | भारत के उत्तर पूर्वी राज्य , मध्य प्रदेश , गुजरात , महाराष्ट्र , राजस्थान , झारखंड बिहार , ओडिशा , छतीसगढ़ एवं बंगाल आदि राज्यों मे कई आदिवासी समुदायों ने अपनी भाषा संस्कृति और सामाजिक परम्पराओं का विकास किया |
यद्यपि प्राचीन काल में आदिवासियों ने भारतीय परंपरा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया था और उनके कतिपय रीति रिवाज और विश्वास आज भी थोड़े बहुत परिवर्तित रूप में आधुनिक हिंदू समाज में देखे जा सकते हैं , तथापि यह निश्चित है कि वे बहुत पहले ही भारतीय समाज और संस्कृति के विकास की प्रमुख धारा से पृथक हो गए थे | आदिवासी समूह हिंदू समाज से न केवल अनेक महत्वपूर्ण पक्षों में भिन्न है , वरन् उनके इन समूहों में भी कई महत्वपूर्ण अंतर हैं | समसामयिक आर्थिक शक्तियों तथा सामाजिक प्रभावों के कारण भारतीय समाज के इन विभिन्न अंगों की दूरी अब क्रमश: कम हो रही है | आदिवासियों की सांस्कृतिक भिन्नता को बनाए रखने में कई कारणों का योग रहा है | मनोवैज्ञानिक धरातल पर उनमें से अनेक में प्रबल जनजाति-भावना (ट्राइबल फीलिंग) है | सामाजिक-सांस्कृतिक-धरातल पर उनकी संस्कृतियों के गठन में केंद्रीय महत्व है | असम के नागा आदिवासियों की नरमुंडप्राप्ति प्रथा बस्तर के मुरियों की घोटुल संस्था , टोडा समूह में बहुपतित्व , कोया समूह में गोबलि की प्रथा आदि का उन समूहों की संस्कृति में बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है | परंतु ये संस्थाएं और प्रथाएं भारतीय समाज की प्रमुख प्रवृत्तियों के अनुकूल नहीं हैं | आदिवासियों की संकलन-आखेटक-अर्थव्यवस्था तथा उससे कुछ अधिक विकसित अस्थिर और स्थिर कृषि की अर्थव्यवस्थाएं अभी भी परंपरा स्वीकृत प्रणाली द्वारा लाई जाती हैं | परंपरा का प्रभाव उनपर नए आर्थिक मूल्यों के प्रभाव की अपेक्षा अधिक है | धर्म के क्षेत्र में जीववाद , जीविवाद , पितृपूजा आदि हिंदू धर्म के समीप लाकर भी उन्हें भिन्न रखते हैं | आज के आदिवासी भारत में पर-संस्कृति-प्रभावों की दृष्टि से आदिवासियों के चार प्रमुख वर्ग दीख पड़ते हैं | प्रथम वर्ग में पर-संस्कृति-प्रभावहीन समूह हैं , दूसरे में पर-संस्कृतियों द्वारा अल्पप्रभावित समूह , तीसरे में पर-संस्कृतियों द्वारा प्रभावित , किंतु स्वतंत्र सांस्कृतिक अस्तित्ववाले समूह और चैथे वर्ग में ऐसे आदिवासी समूह आते हैं जिन्होंने पर-संस्कृतियों का स्वीकरण इस मात्रा में कर लिया है कि अब वे केवल नाममात्र के लिए आदिवासी रह गए हैं | हजारों वर्षों से शोषित रहे इस समाज के लिए परिस्थितियां आज भी कष्टप्रद और समस्याएं बहुत अधिक हैं | ये समस्याएं प्राकृतिक तो होती ही है साथ ही यह मानवजनित भी होती है | विभिन्न आदिवासी क्षेत्रों की समस्या थोड़ी बहुत अलग हो सकती है किन्तु बहुत हद तक यह एक समान ही होती है |