जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव आना तय है. सरकार ने साफ कर दिया है कि 100 से ज्यादा सांसदों ने इस पर सिग्नेचर कर दिए हैं. सारी पार्टियां एक साथ हैं कि ये प्रस्ताव आना चाहिए. संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजीजू ने कहा, यह सभी पार्टियों का प्रस्ताव है, सिर्फ सरकार का नहीं. लेकिन सोशल मीडिया में लोग सवाल पूछ रहे कि क्या देश की सर्वोच्च अदालत, यानी सुप्रीम कोर्ट, इस फैसले को पलट सकती है? भारत जैसे लोकतंत्र में जहां न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच स्पष्ट सीमाएं हैं, वहां इस प्रश्न का उत्तर आसान नहीं, लेकिन बेहद महत्वपूर्ण है.
सबसे पहली बात, जस्टिस यशवंत वर्मा पर गंभीर आरोप लगे हैं. उन पर भ्रष्टाचार और न्यायपालिका की गरिमा को ठेस पहुंचाने के आरोप हैं. अपने पद के दुरुपयोग के आरोप लगे हैं. संविधान के अनुच्छेद 124(4) के तहत संसद उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की तैयारी में है. अब सवाल यह है कि क्या यह अंतिम फैसला है, या इसमें सुप्रीम कोर्ट की दखल संभव है?
अनुच्छेद 124(4) क्या कहता है?
संविधान का अनुच्छेद 124(4) कहता है कि किसी न्यायाधीश को उसके पद से तब तक नहीं हटाया जाएगा जब तक कि संसद के प्रत्येक सदन की ओर से उस सदन की कुल सदस्यता के बहुमत तथा कम से कम दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव न पास हो जाए और राष्ट्रपति उस पर सिग्नेचर न कर दें. यानी साफ है कि संसद दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित करे और राष्ट्रपति उस पर आदेश दें तभी कोई सुप्रीम कोर्ट जज हटाया जा सकता है.
क्या सुप्रीम कोर्ट संसद के महाभियोग को ‘रिव्यू’ कर सकता है?
संविधान सीधे तौर पर नहीं कहता कि सुप्रीम कोर्ट महाभियोग की समीक्षा कर सकता है, लेकिन 1991 के के. वीरास्वामी केस में ऐतिहासिक फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, संसद का कोई भी निर्णय अगर उसकी प्रक्रिया में कोई गड़बड़ी लगती है तो उसका जूडिशियल रिव्यू किया जा सकता है. 1994 के आर गोपाल वर्सेस तमिलनाडु स्टेट के मामले में भी कोर्ट ने माना कि किसी की प्रतिष्ठा, आजादी और जीवन के अधिकार का उल्लंघन महाभियोग जैसी कार्यवाही में भी हो सकता है, जिसे अदालतें देख सकती हैं.
अगर यदि महाभियोग प्रक्रिया में नियमों का उल्लंघन हुआ हो. यदि प्रक्रिया राजनीति से प्रेरित हो या पक्षपातपूर्ण हो. यदि आरोप स्थापित नहीं हुए और फिर भी प्रस्ताव पास हुआ. यदि जज को सफाई देने का उचित अवसर नहीं मिला. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के हाथ भी बंधे हैं. जैसे वह वह संसद की विवेकाधीन शक्ति को चुनौती नहीं दे सकता. वह संसदीय बहस और मत प्रक्रिया की वैधता को नहीं परख सकता. वह राष्ट्रपति के आदेश को आसानी से निरस्त नहीं कर सकता, जब तक प्रक्रिया असंवैधानिक न हो.