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“राहुल का अहंकार, तेजस्वी की हड़बड़ी और ‘SDM’ इग्नोर. बिहार में क्यों हारा महागठबंधन?”

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बिहार विधानसभा में कांग्रेस और राजद (RJD) समेत महा गठबंधन में शामिल सभी दलों की ऐसी दुर्गति होगी यह किसी ने सोचा नहीं होगा. 1989 से बिहार में लालू युग का जो दौर शुरू हुआ अब उसके समापन की तरफ़ बढ़ने के संकेत इस चुनाव नतीजों में देखने को मिले.

साथ में यह भी कि परिवारवादी राजनीति बहुत टिकाऊ नहीं होता. अलबत्ता यदि परिवार की अगली पीढ़ी में समय के अनुकूल पार्टी की नीतियों को बदलने और अपने वोट बैंक को विस्तार देने की कूवत रखती हो तो अलग बात है. यह विशेषता करुणानिधि के बेटे स्तालिन और शिबू सोरेन के बेटे हेमंत सोरेन में दिखती है. किंतु लालू यादव के दोनों बेटे तेजस्वी और तेज प्रताप न तो अपने पिता की तरह फुर्तीले हैं न पार्टी के वोट बैंक के विस्तार में उनकी कोई रुचि है. साथ ही तेजस्वी तो इतनी हड़बड़ी में थे कि चुनाव के दौरान वे गठबंधन के नेताओं से तालमेल भी नहीं बिठा सके.

बिहार के उभरते मध्य वर्ग ने पुरानी परंपरा तोड़ी

यह अकेले तेजस्वी का ही हाल नहीं बल्कि राहुल गांधी में भी ऐसी ही राजनीतिक अपरिपक्वता है. उनमें अहंकार इतना अधिक है कि चुनाव रैलियों में बोलते वक्त वे अपनी ज़ुबान पर क़ाबू नहीं रख पाये. आज का बिहार चार दशक पुराना बिहार नहीं है. लालू यादव के राज में भले वहां अपराध बढ़े हों, उद्योग धंधे चौपट हुए हों और व्यापार समाप्त हुआ हो किंतु वहां मध्य वर्ग का विस्तार हुआ है. इसकी वजह थी बिहार से भागे मज़दूरों ने दिल्ली, पंजाब और दुबई जा कर पैसा कमाया और पैसा अपने वतन भेजा भी. दूसरी तरफ़ बिहार के मध्य वर्ग ने पढ़ने के लिए अपने बच्चों को दिल्ली भेजा. वे पढ़े और अखिल भारतीय सेवाओं से ले कर कारपोरेट के उच्च पदों पर बैठे. अर्थात् एक तरह इन वर्षों में बिहार में एक नई सोच का खाता-पीता वर्ग आया. वह बिहार की राजनीति में दिलचस्पी भी रखता था और उसको इस इस स्थिति से उबारने की इच्छा भी.

प्रचार में निजी हमले

यह बात न तेजस्वी समझ पाये न राहुल गांधी. यूं भी राहुल गांधी का वहां कुछ भी दांव पर नहीं लगा था. उनकी पार्टी बिहार से लगभग ग़ायब है. 1989 के बाद कांग्रेस वहां सिर्फ हाज़िरी ही लगाती रही. यही हाल उत्तर प्रदेश में है. किंतु बिहार में पिछले डेढ़ दशकों से वह लालू यादव की RJD की पिछलग्गू रही है. चुनाव में गठबंधन धर्म निभाना पड़ता है. लेकिन तेजस्वी और राहुल वहां एक-दूसरे से लड़ते रहे. राहुल गांधी अपनी सभाओं में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को टारगेट करते रहे और उनके प्रति अभद्र भाषा बोलने में उन्होंने कोई कोर कसर न उठा रखी. दूसरी तरफ़ तेजस्वी के निशाने पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार रहे. तेजस्वी अपनी हर रैली में नीतीश कुमार के ख़राब स्वास्थ्य और उनकी सरकार को खटारा बताते रहे. वे भूल गये कि लालू यादव सरकार को जंगल राज तब खुद कांग्रेस बताया करती थी.

अल्पसंख्यक समुदाय को नहीं जोड़ सके राहुल

वोट चोर गद्दी छोड़ जैसे नारे कांग्रेस के लिए घातक सिद्ध हुए. वोट चोरी या SIR की नकारात्मकता के कोई ठोस उदाहरण वे नहीं दे सके. यही नहीं बार-बार चुनाव आयोग जैसी सांवैधानिक संस्था को के चु आ कहना एक राष्ट्रीय नेता के लिए उचित नहीं था परंतु अपने वामपंथी सलाहकारों की ऐसी नाकारा सलाह पर वे चलते रहे. इसके अलावा कांग्रेस का हर राज्य में अपर कास्ट हिंदू, दलित और मुसलमान एक सॉलिड वोट बैंक रहा है. जहां भी जो धार्मिक समुदाय अथवा जाति समूह अल्पसंख्यक है वह कांग्रेस के साथ जुड़ने में अपनी भलाई समझता रहा है. क्योंकि कांग्रेस की छवि देश के सभी अल्पसंख्यकों को साथ ले कर चलने की रही है. यहां तक कि राहुल गांधी की मां सोनिया गांधी भी कांग्रेस की इस रणनीति पर चलती रहीं. लेकिन राहुल गांधी ने बिहार में सवर्ण जातियों को सिरे से इग्नोर किया.

सवर्ण, दलित और मुसलमानों (SDM) ने साथ छोड़ा

इतना इग्नोर तो सामाजिक न्याय के मसीहा कहे जाने वाले लालू यादव ने भी नहीं किया था. उन्होंने सदैव ब्राह्मणों को टिकट भी दिये और उनको साथ भी रखा. मालूम हो कि बिहार में ब्राह्मण सबसे कमजोर समुदाय है. बाहुबल, धनबल में वह सदैव अगुआ समुदायों के पीछे चलता है. दलित वोट चिराग़ पासवान ले गए, जो अपने को मोदी का हनुमान कहते रहे हैं. मुस्लिम वोट कांग्रेस की बजाय असदउद्दीन ओवैसी के खाते में गया. कांग्रेस को कुल छह सीटें मिली हैं, इनमें से अररिया और किशन गंज से ही कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवार जीत पाये. यह कांग्रेस की सबसे बड़ी पराजय है कि वह दो अंकों तक भी नहीं पहुंची. बिहार में इस बार कांग्रेस के अरमान तो बहुत थे और उम्मीद भी किंतु कांग्रेस गठबंधन धर्म का पालन करने में पूरी तरह नाकाम रही.

राहुल और तेजस्वी एक-दूसरे को निपटाते रहे

शुरू में तो कांग्रेस तेजस्वी को मुख्यमंत्री का चेहरा बताने में भी संकोच करती रही. बाद में जब हड़बड़ी में तेजस्वी को मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर स्वीकार भी किया तब तक बहुत देर हो चुकी थी. यहां तक कि नामांकन की तिथि तक असमंजस रहा कि सीट किसके पास गई! चुनाव प्रचार के दौरान भी कॉमन मिनिमम प्रोग्राम (CMP) नहीं देखने को मिला. ऐसा लग रहा था कि तेजस्वी और राहुल गांधी में तालमेल की कमी है. दरअसल, विधानसभा चुनाव में कांग्रेस राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे उठती रही तथा तेजस्वी सिर्फ मुख्यमंत्री पर निजी हमले करते रहे. वोटरों को लग गया कि दोनों के पास बिहार की जनता के लिए कोई मुद्दे नहीं हैं. तेजस्वी यादव ने 136 सीटें अपने पास रखी थीं और उसमें से 52 सीटों पर यादव उम्मीदवार उतारे. इससे NDA को यह प्रचारित करने में सुविधा रही कि तेजस्वी का राज यानी यादव राज और जंगल राज!

प्रशांत किशोर जोकर साबित हुए

कांग्रेस 70 सीटों पर लड़ रही थी और मिलीं उसको सिर्फ छह. उसकी रणनीति पूरी तरह नाकाम रही और महा गठबंधन को केवल 35 सीटें ही मिल पाईं. राजद की 25 सीटों के अलावा कांग्रेस की छह और भाकपा (माले) को दो एवं माकपा को एक सीट मिली है. इंडियन इन्क्लुसिव पार्टी को भी एक सीट मिली है. इसके अलावा बसपा को भी एक तथा 5 सीटें असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी को मिली हैं. प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी एक भी सीट नहीं पा सकी. मगर उसने चुनाव का मज़ाक़ उड़ा दिया. प्रशांत किशोर किसी का भी भला नहीं कर सके न अपना और न ही राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन अथवा महा गठबंधन का. वे इस पूरे चुनाव में जोकर साबित हुए. राहुल और तेजस्वी तो अपने अहंकार और कमजोर राजनीतिक समझ के कारण डूबे किंतु प्रशांत किशोर अपनी मूर्खता की वज़ह से.

एमवाई के नये मायने

बिहार चुनाव ने कई चीजों के मायने बदल दिए. मसलन एम वाई (M-Y) अब मुस्लिम यादव नहीं रहा बल्कि महिला और युवा ने तब्दील हो गया. ये दोनों नई ताक़तें बिहार चुनाव की रीढ़ रहीं. महिलाओं ने सिर्फ 10000 रुपए खाते में आने के कारण NDA को पसंद नहीं किया बल्कि नीतीश के सुशासन के चलते उन्हें निर्भय हो कर घर से बाहर निकलने की आज़ादी मिली. बेटियों को स्कूल नीतीश राज में भेजा जाने लगा. नीतीश ने साइकिल दे कर उनके पांवों में पंख लगा दिये थे. शराबबंदी के कारण घर बर्बाद होने से बचे. इसका मुख्य लाभ महिलाओं को मिला. शराबी पतियों की मारपीट से वे बचीं और परिवार का भविष्य सुरक्षित हुआ. यौन दुष्कर्म तथा छेड़छाड़ की घटनाएं कम हुईं. युवाओं को मोहने का काम मोदी सरकार ने किया. हर जाति के युवा अब रोज़गार चाहते हैं, वे जाति-पात, जंगल राज नहीं चाहते इसीलिए NDA की सुनामी आई और महागठबंधन डूबा!