खैर… सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बीआर गवई ने जस्टिस वर्मा के खिलाफ महाभियोग के प्रस्ताव की सिफारिश कर दी. फिर संसद के मॉनसून सत्र से पहले हुई सर्वदलीय बैठक के बाद केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री किरण रिजिजू ने बताया कि महाभियोग प्रस्ताव के लिए पक्ष और विपक्ष के 100 से ज्यादा सांसदों ने नोटिस पर हस्ताक्षर किए हैं. दूसरी ओर राज्यसभा में 50 से ज्यादा सदस्यों के हस्ताक्षर वाले प्रस्ताव को तत्कालीन सभापति जगदीप धनखड़ (उपराष्ट्रपति) ने स्वीकार भी कर लिया. इससे पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस शेखर यादव के खिलाफ भी उच्च सदन में महाभियोग प्रस्ताव लाया गया, जिसकी प्रक्रिया अभी चल ही रही है.
जस्टिस वर्मा को अक्टूबर 2021 में दिल्ली हाई कोर्ट में जज नियुक्त किया गया था और वे अप्रैल 2025 तक इस पद पर रहे. विवादों के बाद उनका वापस दिल्ली से इलाहाबाद हाई कोर्ट ट्रांसफर दिया गया, जहां से वे आए थे. इस बीच राज्यसभा में उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव स्वीकृत करने वाले जगदीप धनखड़ पद से इस्तीफा दे चुके हैं. महाभियोग प्रस्ताव एक जटिल और लंबी प्रक्रिया है.
इसपर आगे क्या होगा, पूरी प्रक्रिया क्या है, महाभियोग प्रस्ताव होने के बाद जस्टिस वर्मा पर क्या कार्रवाई हो सकती है, क्या उन्हें पदमुक्त कर दिया जाएगा? ऐसे कई सवाल हैं, जिनके जवाब आपको इस लेख में मिलेंगे. आपको ये जानकर आश्चर्य भी होगा कि आज तक किसी जज को महाभियोग के जरिये हटाया नहीं गया है. तो पहली बार महाभियोग कब लाया गया? देश के इतिहास में ऐसा कब-कब हुआ? क्या कार्रवाइयां हुईं? ये सारी जानकारी भी हम यहां देने जा रहे हैं.
महाभियोग जैसे जटिल विषय को विस्तार से जानने, समझने के लिए हमने संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ, राज्य विधिक सेवा प्राधिकार में कार्य कर चुके एक जज, पटना हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस कर रहे एक जानकार एडवोकेट और यूपीएससी की तैयारी कराने वाले एक चर्चित कोचिंग सेंटर में संविधान पढ़ाने वाले एक शिक्षक से बातचीत की है. तो चलिए शुरू करते हैं…
संविधान में ‘महाभियोग’ का प्रावधान
जैसा कि आप जानते हैं, भारतीय लोकतंत्र के तीन महत्वपूर्ण स्तंभ हैं- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका. इनमें न्यायपालिका का स्थान इसलिए विशेष है, क्योंकि ये न्याय सुनिश्चित करती है. और इसके लिए संसद और सरकार के फैसलों की समीक्षा भी करती है. तभी तो संविधान में इसे ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष’ बनाए रखने के लिए जजों को विशेषाधिकार दिए गए हैं. खास तौर पर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों को.
इन जजों पर कार्यपालिका का सीधा नियंत्रण नहीं होता. उनके वेतन और सेवा शर्तों में संसद भी कटौती नहीं कर सकती और यहां तक कि उन्हें कार्यकाल के दौरान आसानी से हटाया भी नहीं जा सकता. इनका वेतन भी कॉन्सॉलिडेटेड फंड से दिया जाता है, ताकि उन पर बाहरी दबाव न हो.
लेकिन यहां एक महत्वपूर्ण सवाल ये है कि जब हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के कोई जज पद की गरिमा का उल्लंघन करें या फिर गलत आचरण में लिप्त पाए जाएं तो उन्हें जवाबदेह कौन बनाएगा?
द फ्लेचर स्कूल ऑफ लॉ एंड डिप्लोमेसी, बोस्टन (अमेरिका) से इंटरनेशनल लॉ की पढ़ाई कर चुके संवैधानिक मामलों के जानकार कुमार आंजनेय शानू ने NDTV से बातचीत में बताया कि भारतीय संविधान में सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के जज को पद से हटाना एक बेहद असाधारण स्थिति मानी जाती है. इसे आम तौर पर ‘महाभियोग’ (Impeachment) की प्रक्रिया के रूप में जाना जाता है. हालांकि संविधान में इस शब्द का जिक्र नहीं है. संविधान के अनुच्छेद 124(1) में सुप्रीम कोर्ट की संरचना और जजों की नियुक्ति का प्रावधान है, जबकि उन्हें हटाए जाने की एकमात्र प्रक्रिया, संविधान के अनुच्छेद 124(4) में दी गई है, जिसे न्यायाधीश जांच अधिनियम, 1968 (Judges Enquiry Act 1968) के जरिए व्यावहारिक बनाया गया है. वहीं अनुच्छेद 218 ये कहता है कि हाईकोर्ट के जज के मामले में भी यही प्रक्रिया लागू होगी.
महाभियोग की प्रक्रिया
सुप्रीम कोर्ट, न्यायपालिका का सर्वोच्च शिखर है और फिर हाई कोर्ट. न्याय के इन मंदिरों में बैठे जजों को संविधान का संरक्षक माना जाता है. अगर इनमें से कोई जज संविधान से हटकर आचरण करे तो उन्हें जवाबदेह ठहराया जा सकता है. जैसा कि हमने ऊपर बताया संविधान में महाभियोग की प्रक्रिया के प्रावधान हैं. महत्वपूर्ण बात ये है कि महाभियोग की प्रक्रिया शुरू करने के केवल दो आधार हो सकते हैं. पहला- दुराचार (Misbehaviour) और दूसरा- अयोग्यता (Incapacity). यानी कि कोई ऐसा कार्य, जिससे न्यायमूर्ति पद की गरिमा धूमिल होती हो. देश में आज तक किसी भी सुप्रीम कोर्ट के जज को महाभियोग के जरिये बर्खास्त नहीं किया गया या फिर कोशिश तो हुई, पर ऐसा नहीं किया जा सका. आगे उसकी चर्चा करेंगे, पहले ये जान लेते हैं कि महाभियोग की प्रक्रिया कई चरणों में पूरी होती है.
1). पहला चरण: प्रस्ताव की शुरुआत
सबसे पहले, दुराचार के आरोपी या अक्षम जज के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव संसद के किसी भी सदन यानी लोकसभा या राज्यसभा में लाया जा सकता है. इसकी कुछ बुनियादी शर्तें हैं. जैसे कि यदि यदि प्रस्ताव लोकसभा में लाया जा रहा है, तो उसे कम से कम 100 सांसदों के हस्ताक्षर होने चाहिए. वहीं, ये प्रस्ताव अगर राज्यसभा से शुरू होता है, तो कम से कम 50 सदस्यों का समर्थन जरूरी है. ये लिखित प्रस्ताव होता है, जिसमें जज के खिलाफ सामने आए आरोपों का स्पष्ट उल्लेख होता है. इसे लोकसभा में स्पीकर या फिर राज्यसभा में सभापति/चेयरमैन को सौंपा जाता है.
2). दूसरा चरण: प्रारंभिक जांच और निर्णय
राज्य विधिक सेवा प्राधिकार से रिटायर्ड एक जज ने बातचीत के क्रम में बताया कि लिखित प्रस्ताव में उन आरोपों का आधार भी प्रस्तुत किया जाता है. महाभियोग के लिए प्रस्ताव आने के बाद ये पूरी प्रक्रिया स्पीकर या चेयरमैन के विवेक पर आ जाती है कि वे इसे स्वीकार करें या खारिज करें. निर्णय लेने से पहले उन्हें जरूरी लगे तोवे परामर्श ले सकते हैं, दस्तावेजों की जांच कर सकते हैं और ये मूल्यांकन कर सकते हैं कि आरोप प्रथम दृष्टया कितने कितने गंभीर और प्रमाणित हैं. ऐसा इसलिए भी जरूरी होता है, ताकि इस प्रक्रिया का राजनीतिक दुरुपयोग न हो.
3). तीसरा चरण: जांच समिति का गठन
अगर स्पीकर या चेयरमैन प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते हैं, तो अगला कदम होता है एक तीन सदस्यीय जांच समिति (Inquiry Committee) का गठन. स्पीकर या सभापति, जहां प्रस्ताव दिया गया है, वो शिकायत की जांच के लिए तीन सदस्यीय जांच समिति का गठन करते हैं. ये समिति ‘महाभियोग प्रक्रिया’ का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो आरोपों की निष्पक्ष और विशेषज्ञता के साथ जांच के लिए होती है. इस समिति में तीन सदस्य होते हैं:-
एक सुप्रीम कोर्ट का जज (देश के चीफ जस्टिसको प्राथमिकता)
एक हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस
एक प्रतिष्ठित कानूनविद (जो स्पीकर या चेयरमैन की राय में उपयुक्त हों)
4). चौथा चरण: समिति की जांच और रिपोर्ट
ये समिति जज के खिलाफ आरोपों की चार्जशीट तैयार करती है, और उन आरोपों की जांच शुरू करती है. आरोपों की एक प्रति संबंधित जज को भेजी जाती है ताकि उन्हें जवाब देने का उचित अवसर मिल सके. यदि आरोप मानसिक या शारीरिक अक्षमता से जुड़ा हो तो मेडिकल टेस्ट भी कराया जा सकता है.
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जांच समिति को पूरी स्वतंत्रता होती है कि वो अपनी प्रक्रिया खुद तय करे, वो चाहे तो गवाह बुला सकती है, दस्तावेज मांग सकती है, और क्रॉस-एग्जामिनेशन कर सकती है. कई मामलों में समिति एक वकील को नियुक्त करती है जो आरोप तय करते हैं और जज के खिलाफ बहस करते हैं. उदाहरण के तौर पर जस्टिस वी रामास्वामी के खिलाफ समिति गठित हुई थी तब जानी-मानी सीनियर एडवोकेट इंदिरा जयसिंह अभियोजन पक्ष की भूमिका में थीं. वहीं कपिल सिब्बल बचाव पक्ष में थे.
5). पांचवा चरण: संसद में बहस और वोटिंग
जब जांच पूरी हो जाती है, तो समिति अपनी रिपोर्ट तैयार करती है और उसे उसी सदन में सौंप देती है जहां से महाभियोग प्रस्ताव इनिशिएट किया गया था. रिपोर्ट में समिति यह सिफारिश करती है कि आरोप सिद्ध हुए या नहीं हुए. समिति ने अगर आरोपों को झूठा या असत्यापित पाया, तो प्रस्ताव वहीं समाप्त हो जाता है. लेकिन अगर आरोपों को सही पाया गया, जज को गलत पाया गया तो संसद में इस पर वोटिंग होती है.
महाभियोग का प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों, लोकसभा और राज्यसभा में पारित किया जाना जरूरी होता है. वो भी एक ही सत्र में. इसके लिए दोहरी शर्त होती है.
सदन की कुल सदस्यता का बहुमत
सदन में मौजूद और मतदान कर रहे सदस्यों का दो-तिहाई बहुमत
‘दो-तिहाई बहुमत’ की अनिवार्यता बेहद जरूर है, जो ये दिखाता है कि दोषी पाए गए जज को हटाने के निर्णय में बड़े हिस्से की सहमति है. यदि प्रस्ताव को पहले सदन में सफलतापूर्वक बहुमत मिला तो इसे फिर दूसरे सदन में विचार और मतदान के लिए भेजा जाता है. दूसरे सदन में भी दो-तिहाई बहुमत या उससे ज्यादा समर्थन के बाद जज को हटाया जाना तय हो जाता है.
6). छठा चरण: राष्ट्रपति का आदेश
यदि लोकसभा और राज्यसभा दोनों में प्रस्ताव पास हो जाता है, तो अब संसद ‘राष्ट्रपति को एक संकल्प’ भेजती है, जिसमें दोषी पाए गए जज को हटाने की सिफारिश होती है. राष्ट्रपति तब जज को हटाने का आदेश (order)जारी करते हैं. ये महाभियोग प्रक्रिया का अंतिम चरण होता है. राष्ट्रपति की ओर से ये आदेश जारी करना काफी हद तक औपचारिक ही होता है. यानी जिनके आदेश से जज की नियुक्ति हुई थी, उन्हीं के आदेश से उसे हटाया भी जा सकता है.
एक और बेहद महत्वपूर्ण बात ये है कि महाभियोग की प्रक्रिया के दौरान अगर जज स्वेच्छा से इस्तीफा दे देते हैं, तो प्रक्रिया वहीं रुक जाएगी और इस तरह वे कार्रवाई से बच जाएंगे. साल 2011 में कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस सौमित्र सेन के मामले में यही हुआ था. राज्यसभा में ऐतिहासिक तौर पर प्रस्ताव पारित हुआ था, मगर वोटिंग से पहले ही उन्होंने त्यागपत्र दे दिया और कार्रवाई से बच गए.
भारतीय इतिहास में कई उदाहरण, लेकिन…
भारत के इतिहास में अब तक किसी भी जज को महाभियोग के जरिए बर्खास्त नहीं किया गया है. लेकिन ऐसी कोशिशें जरूर हुई है. इनमें सबसे चर्चित मामला था, जस्टिस वी रामास्वामी केस, जो कि महाभियोग का पहला उदाहरण है. देश में किसी जज के खिलाफ महाभियोग बेहद दुर्लभ घटना है.
सबसे चर्चित: जस्टिस वी रामास्वामी मामला (1991-1993)
जस्टिस वी रामास्वामी का मामला देश के न्यायिक इतिहास में सबसे पहला उदाहरण है. राजधानी दिल्ली के एक बड़े कोचिंग संस्थान में संविधान और लॉ से जुड़े विषय पढ़ाने वाले एक शिक्षक और टिप्पणीकार ने एनडीटीवी से बातचीत में इस केस के बारे में विस्तार से बात की. उन्होंने कहा, ‘ये पहली बार था, जब सुप्रीम कोर्ट के जज के खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही शुरू की गई थी.’ अक्टूबर 1989 में सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत होने के कई महीनों बाद उनके लिए परेशानियां शुरू हुईं. उनके खिलाफ वित्तीय अनियमितताओं के आरोप लगाए गए, जो कि पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में उनके कार्यकाल से संबंधित थे. एक इंटरनल ऑडिट और महालेखाकार (CAG) की जांच से सार्वजनिक धन के दुरुपयोग का खुलासा हुआ था.
तत्कालीन CJI सब्यसाची मुखर्जी ने ऑडिट रिपोर्ट का हवाला देते हुए 20 जुलाई, 1990 को एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए जस्टिस रामास्वामी को, जांच लंबित रहने तक ‘न्यायिक कार्यों के निर्वहन पर रोक’ की सलाह दी. जस्टिस रामास्वामी छुट्टी पर चले गए. महाभियोग प्रक्रिया औपचारिक रूप से 13 मार्च, 1991 को शुरू हुई, जब स्पीकर रबी राय ने नौवीं लोकसभा के भंग होने से ठीक एक दिन पहले 108 संसद सदस्यों के हस्ताक्षरित प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया.
उन्होंने बताया, ‘ सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस पीबी सावंत की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय जांच समिति बनी, जिसमें जस्टिस पीडी देसाई (बॉम्बे हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश) और कानूनविद् के तौर पर जस्टिस ओ चिनप्पा रेड्डी (सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज) शामिल थे. समिति ने अपनी जांच पूरी की और 1993 में रिपोर्ट दी. जस्टिस रामास्वामी सार्वजनिक धन के दुरुपयोग और फिजूलखर्ची के दोषी पाए गए.
महाभियोग प्रस्ताव पर 10 मई, 1993 को लोकसभा में बहस के लिए लाया गया. दो दिनों तक 16 घंटे तक बहस चली. प्रस्ताव पेश करने वाले सोमनाथ चटर्जी ने जस्टिस के कथित प्रयासों की आलोचना की. वहीं दूसरी ओर जस्टिस रामास्वामी के वकील के रूप में कपिल सिब्बल ने सार्वजनिक धन के दुरुपयोग के सभी 11 आरोपों का खंडन किया. दावा किया कि उनके मुवक्किल ‘भ्रष्ट’ नहीं थे.
11 मई, 1993 को वो निर्णायक क्षण आया, जब प्रस्ताव पर मतदान हुआ. सदन में मौजूद 401 सदस्यों में से 196 सदस्यों ने प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया, जबकि 205 सदस्य अनुपस्थित रहे. इस तरह दो-तिहाई बहुमत नहीं मिल पाया. बताया जाता है कि सत्तारूढ़ कांग्रेस और उसके सहयोगी पार्टियों के सांसद ‘ऊपर से मिले निर्देश’ के चलते मतदान से अनुपस्थित रहे. ऐसे में जस्टिस रामास्वामी कार्रवाई से बचे रहे. वे अपने पद पर बने रहे और फरवरी 1994 में सेवानिवृत्त हुए.