एक बात जो मीर अनीस को बड़ा शायर बनाती है, वह है उनका स्वाभिमानी प्रतिरोध. पिछली कई पीढ़ियों से चली आ रही पारिवारिक परंपरा को तोड़कर उन्होंने अवध के नवाब का दरबारी बनना स्वीकार नहीं किया और किसी अन्य दरबार से भी नहीं जुड़े.
उर्दू साहित्य की दरबारदारी की परंपरा की कलाइयां मरोड़ने में सानी न रखने वाले अपनी तरह के अनूठे शायर मीर बबर अली अनीस को, जो बाद में मीर अनीस के नाम से प्रख्यात हुए, उनके प्रशंसक इन दो उपाधियों से तो नवाजते ही हैं.
उन्हें सांस्कृतिक आदान-प्रदान और गंगा-जमुनी तहज़ीब के प्रतिनिधि शायर के रूप में भी याद किया जाता है. मीर तक़ी मीर, मिर्ज़ा ग़ालिब और अल्लामा इक़बाल के साथ उन्हें उर्दू शायरी के चार स्तंभों में गिनते हैं, सो अलग.
हालांकि उनके जन्म की तिथि और वर्ष को लेकर उर्दू साहित्य के इतिहासकार एकमत नहीं हैं.
कहा जाता है कि कभी नवाबों की राजधानी रहीं फ़ैज़ाबाद के गुलाबबाड़ी इलाके में वर्ष 1796 से 1805 के बीच कभी उनका जन्म हुआ. 2003 में भारत और पाकिस्तान के कई हिस्सों में उनकी दूसरी जन्मशती इस अनुमान के आधार पर मनायी गई कि वे अपने पिता मीर ख़लीक़ के शिष्य और मशहूर शायर नवाब सईद मोहम्मद ख़ान ‘रिंद’ से चार साल छोटे थे और रिंद की पैदाइश का वर्ष 1799 है.
मीर अनीस की प्राथमिक शिक्षा उनके घर में ही हुई और मां के बाद मौलवी मीर नज़फ़ अली व मौलवी हैदर अली लखनवी उनके शिक्षक बने, जिन्होंने अनौपचारिक रूप से उनको ऐसी उद्देश्यपरक शिक्षा दी, ताकि वे अपने वंश की पांच पीढ़ियों से चली आती ईश्वर, पैगम्बर और बुज़ुर्गान-ए-दीन के गुणगान की परंपरा को आगे बढ़ा सकें. आगे चलकर उन्होंने लखनऊ में भी शिक्षा ग्रहण की.
लेकिन उनके शिक्षकों को जल्दी ही समझ में आ गया कि उनकी रुचि परंपरा में उतनी नहीं है जितनी विज्ञान और बुद्धि कौशल के इस्तेमाल में है. उन्होंने युद्ध कलाओं का भी प्रशिक्षण प्राप्त किया था और अपने बदन को कसरती बनाए रखने की कोई भी कोशिश छोड़ना उन्हें गवारा नहीं था. प्रकृति के तो वे ऐसे प्रेमी थे कि उसके सौंदर्य और चमत्कारों को निहारते हुए प्राय: कहीं खो से जाते थे.
समाज, साहित्य व संस्कृति के रहस्यभेदन के जज़्बे ने एक ज्ञानपिपासु के रूप में उनको, अंतिम दिनों की गंभीर अस्वस्थता के कुछ वर्षों को छोड़कर अपने जीवन को सक्रिय बनाए रखा.
उनकी वैज्ञानिक दृष्टि ज्ञान के तंतुओं को जहां से और जैसे भी ढूंढ पाई, ढूंढ लाई और उन्होंने अपनी रचनाओं में उनका सृजनात्मक इस्तेमाल किया. इसी इस्तेमाल ने उन्हें सांस्कृतिक आदान-प्रदान और गंगा-जमुनी तहज़ीब के प्रतिनिधि कवि के रूप में प्रतिष्ठित किया.
एक और बात जो मीर अनीस को बड़ा शायर बनाती है, वह है उनकी स्वाभिमानी प्रतिरोध चेतना. अपने परिवार की कई पीढ़ियों से चली आती परंपरा को तोड़कर उन्होंने अवध के नवाब का दरबारी बनना स्वीकार नहीं किया. किसी और नवाब के दरबार से भी वे नहीं जुड़े.
नवाब वाजिद अली शाह चाहते थे कि वे तीन अन्य उर्दू शायरों वर्क, असीर और कुबूल के साथ मिलकर उनके वंश का शाहनामा लिखें. मगर अनीस से कह दिया कि मैं कर्बला के नायकों व शहीदों का, उनकी महागाथा का, गायक हूं और किसी राजा या नवाब की प्रशस्ति गाता नहीं फिर सकता.
मीर अनीस उर्दू शायरी के उस दौर में हुए थे, जब ग़ज़लों का झंडा चहुंओर बुलंद था. कविगण ग़ज़ल रचना में निष्णात होने को कवि-कर्म में सफलता की गारंटी मानते थे. लेकिन मीर अनीस उनकी राह नहीं चले.
शायद उन्होंने सोचा कि दूसरों की तरह ग़ज़लें रचकर बड़े शायर बने तो क्या कमाल किया और ‘जौ कासी तन तजै कबीरा तौ रामै कौन निहोरा रे’ की तर्ज पर मर्सियों की रचना का कठिन रास्ता चुन लिया.
मर्सिया भारतीय उर्दू कविता की ऐसी विशिष्टता है जो उस रूप में अन्यत्र कहीं नहीं पाई जाती. ये मूलत: दिवंगत जनों के शोक में की जाने वाली अभिव्यक्तियां हैं और भारत में मुस्लिम शासन के दौरान विकसित होते-होते इस परंपरा ने एक सर्वथा अलग और समावेशी रूप धारण कर लिया था.
मीर अनीस ने उसके इसी रूप को अंगीकार करते हुए अपने मर्सियों में शांति और सद्भाव जैसे आदर्शों की मजबूत पैरोकारी की.
मर्सियों का वर्ण्य विषय उन्होंने कर्बला की उस प्रसिद्ध जंग को बनाया, जिसमें हुई शहादतों का इस्लामी धर्मानुयायियों के लिए अलग ही महत्व है, लेकिन उसमें मानवीय भावनाओं और महाकाव्यात्मकता के साथ ऐसा भारतीय रंग भरा कि पढ़ने वाले को वह ‘पद्मावत’ या ‘रामचरित मानस’ जैसी गाथा लगने लगे.
अवध में रहकर उन्होंने भारतीय जीवन शैली का जो सूक्ष्म निरीक्षण किया था और अवधी में उपलब्ध महाकाव्यों के तत्वों से उनका जैसा निकट का परिचय था, वह इसमें उनके काम आया.
उनके मर्सिये जगह-जगह उनकी अद्भुत रचनाशीलता की गवाही देते हैं. चूंकि वे ख़ुद भी युद्धकला के ज्ञाता थे, उन्होंने कर्बला के युद्ध का ऐसा सांगोपांग वर्णन किया है कि लगता है सब कुछ आज, अभी पढ़ने वाले की आंखों के आगे घट रहा है.
उनके वर्णन में बिम्बात्मकता की ऐसी प्रभावपूर्ण उपस्थिति है कि स्मृति में बनते चित्रों की लय कहीं से टूटने नहीं पाती. और ऐसा भी नहीं कि सिर्फ युद्ध के दृश्य ही जीवंत बन पड़े हों, अनीस को प्राकृतिक दृश्यों के शब्द चित्र बनाने में भी वैसी ही महारत हासिल है.
कर्बला की गाथा की कारुणिकता बताने और उसके पात्रों को सहज मानवीय धरातल पर लाकर उनमें मानवीय भावनाओं के आरोपण में भी वे समर्थ शब्दकार सिद्ध होते हैं. भाषा के सौंदर्य की बात हो, उसके संस्कार की या अलंकारिकता की, वे कहीं पीछे नहीं दिखते. ख़ासकर उनकी उपमाएं और रूपक बहुत ही काबिल-ए-तारीफ़ हैं.
मीर अनीस की अपने वक़्त के जाने-माने अरबी विद्वान मिर्ज़ा दबीर से कड़ी प्रतिद्वंद्विता थी. लेकिन इस प्रतिद्वंद्विता के बावजूद उन्होंने अपनी रचनाओं में कहीं भी विद्वता नहीं बघारी, न भाषा की सरलता, स्पष्टता और साहित्यिकता से समझौता किया.
शैली के वैविध्य के भी अनीस धनी हैं. कहीं अति गंभीर तो कहीं सहजता का धरातल छूते हुए. उर्दू में ग़ालिब और अनीस दोनों ही ट्रेजेडी के कवि हैं. दोनों में फ़र्क़ यह है कि ग़ालिब की ट्रेजेडी उनकी निजी है यानी उसका स्वभाव व्यक्तिगत है जबकि अनीस की कर्बला केंद्रित. अनीस का एप्रोच वस्तुनिष्ठ (आॅब्जेक्टिव) है जबकि ग़ालिब का आत्मनिष्ठ (सब्जेक्टिव).
निस्संदेह मानव मनोविज्ञान के मामले में अनीस का कैनवास और अध्ययन वृहद है. मीर अनीस के मर्सियों का बंगला, गुजराती, पंजाबी, सिंधी, अरबी और अंग्रेज़ी के अतिरिक्त हिंदी में भी अनुवाद हो चुका है और वे विभिन्न देशों की सरहदों के पार भारतीय एशियायी उपमहाद्वीप में ख़ासे लोकप्रिय हैं.
हालांकि अपनी जन्मस्थली फ़ैज़ाबाद (और लखनऊ, जहां 10 दिसंबर, 1874 को निधन के बाद उन्हें सुपुर्द-ए-ख़ाक़ किया गया) में वे लगभग विस्मृत से कर दिए गए हैं. तिस पर अब कुछ लोग उनके जन्म के साथ ही निधन की तारीख़ को भी विवादित बनाने लगे हैं.
फ़ैज़ाबाद में जिस घर में वे पैदा हुए थे, लंबे अरसे तक उसमें कांजी हाउस बनाकर उनकी स्मृतियों को अपमानित किया जाता रहा. 80 के दशक में कुछ लोगों के प्रयास से वहां उनके और पंडित ब्रजनारायण चकबस्त के नाम पर एक पुस्तकालय खोला गया तो उसकी हालत भी अच्छी नहीं ही बन पाई.