बस्तरवासी इस वर्ष 608वां विश्व प्रसिद्घ बस्तर दशहरा मनाने जा रहे हैं। बस्तर में रथ संचलन की शुरुआत 608 साल पहले राजा पुरषोत्तम देव के जमाने में हुई थी। उन्हें जगन्नााथपुरी में रथपति के साथ 16 पहियों का रथ प्रदान किया गया था। उन्होंने इस विशाल रथ के चार पहिए भगवान जगन्नाथ को समर्पित करने के बाद 12 पहिए का रथ दशहरा रथ की शुरुआत बड़े डोंगर से की थी। वहीं वर्ष 1610 में तत्कालीन शासक दृगपाल देव ने 12 पहिया वाले विशाल रथ को दो हिस्सों में बॉट कर चार और आठ पहियों का रथ बनवाया और पᆬूलरथ और विजय रथ संचलन की प्रथा प्रारंभ की। बस्तर के राजाओं की राजधानी भले ही बड़े डोंगर से जगदलपुर हो गई है लेकिन रथ संचलन की यह परंपरा निरंतर जारी है।
मिली थी रथपति की उपाधि
बस्तर इतिहास के अनुसार बस्तर में इस अनूठे दशहरा की शुरूवात भूतपूर्व चित्रकोट राज्य में हुई थी। चालुक्य नरेश पुरुषोत्तम देव के शासनकाल में उन दिनों चित्रकूट की राजधानी बड़े डोंगर में थी। यह एक स्वतंत्र राज्य था। राजा पुरषोत्तम देव भगवान जगन्नााथ के भक्त थे। वर्ष 1408 में राजा पुरषोत्तम देव ने तीर्थाटन की योजना बनाई थी और अपनी इस योजना के अनुसार उन्हें बड़े डोंगर से पैदल जगन्नााथपुरी तक जाना था। रास्ते भर जगन्नााथ के ध्यान में दंडवत पड़ते जाना था। प्रत्येक दंडवत के लिए डगों का क्रम निर्धारित किया गया था। निश्चित तिथि में उनकी यात्रा प्रारंभ हुई। उनके साथ पूरी व्यवस्था चल रही थी। काव़ड़ों और बैल गाड़ियों में आवश्यक सामान लादे गए थे। सारी सुविधाएं उपलब्ध होने के बावजूद उनकी यात्रा कष्टप्रद रही। एक लंबी अवधि के बाद वे जगन्नााथपुरी पहुंचे थे। वहां उन्होंने ब़ड़ी श्रद्घा भक्ति के साथ भगवान जगन्नााथ के दर्शन कर श्री चरणों में स्वर्ण मुद्राएं और दुर्लभ रत्न – राशि अर्पित किए थे।
प्रथम रथ संचलन बड़ेडोंगर में
बताया जाता है कि उसी रात मंदिर के पंडे को स्वप्न हुआ कि राजा की भक्ति भावना से भगवान प्रसन्ना हैं और उन्होंने पंडे को आदेशित किया गया कि पुरुषोत्तम देव को रथपति की उपाधि से विभूषित करें। माना जाता है कि वर्ष 1410 में रथपति राजा पुरषोत्तम देव ने अपनी राजधानी बड़ेडोगर में रथयात्रा पर्व के अतिरिक्त दशहरा पर्व में भी उत्साहपूर्वक रथों का उपयोग करने लगे। बस्तर दशहरा बस्तरवासियों को राजा पुरूषोत्तम देव का दिया एक जन उपयोगी उपहार माना जाता है। जिसकी मिसाल कहीं और नहीं मिलती।
तीन महीना पहले होती थी तैयारी
भूतपूर्व बस्तर राज्य में दशहरा मनाने की तैयारी तीन माह पहले से ही होने लगती थी । रियासती शासन सर्वप्रथम आयोजन हेतु आवश्यक सामग्री जुटाने के लिए एडमिनिस्ट्रेटर बीसहा पैसा मंजूर कर दिया करता था। प्रावधान के अनुसार सामान खरीदने के लिए एक निश्चित राशि स्वीकृत हो जाया करती थी। उसी राशि को बिसहा पैसा कहा जाता था। यह राशि विशेषकर दशहरा आयोजन के लिए खरीदी गई सामग्री के निमित्त भुगतान की राशि हुआ करती थी। बिसहा राशि राज्य शासन द्वारा तहसील को हस्तांतरित कर दी जाती थी और तहसील कार्यालय द्वारा यह राशि परगनिया, मांझी को दी जाती थी। सारे परगनिया -मांझी अपने सहयोगियों को साथ लेकर जनसंपर्क करते थे और सामग्री जुटाने फिरते थे। बिसहा पैसा जिसे मिलता था। वह अपने आप को धन्य समझता था और बिसहा पैसा के रूप में प्राप्त उस अल्प भुगतान में ही प्रसन्नाता पूर्वक दशहरा हेतु अपना कीमती सामान दे दिया करता था। दशहरा आयोजन के निमित्त प्राप्त सामग्री के अंतर्गत चावल, दाल, नमक,मिर्च ,गुड ,बकरा, भैंसा ,भेड़, मुर्गा आदि आते थे। दशहरा हेतु प्राप्त उक्त पूरी सामग्री को दशहरा बोकड़ा और मांगनी चाउर कहा जाता था। पूरी सामग्री में चावल , बकरे का महत्व अधिक होता था। जमा करने वाले सामानों को राजकोठी में एक जगह एकत्र करते थे । कोठिया (खजांची) उन्हें रसीद दिया करता था। रसीदों को टेम्पल मैनेजर के कार्यालय में जमा किया जाता था। टेंपल मैनेजर के ऑफिस से इसकी सूचना तहसील कार्यालय में पहुंचाई जाती थी। राजकोठी में एकत्रित बिसहा से ही कार्यकर्ताओं को भत्ते दिए जाते थे ।
सहभागिता का पर्व
वैसे बस्तर दशहरा का प्रारंभ काछनगादी से दो माह पूर्व अमावस के दिन हो जाता है। इस दिन दशहरा के निमित्त जंगल से लकड़ी का लट्ठा जिसे टूरलू खोटला कहा जाता है, लाकर सिंहद्वार के पास रख देते हैं और प्रथा के अनुसार उसकी पूजा करते हैं । पाटजात्रा के पश्चात भादो शुक्ल पक्ष तेरस के दिन सिरहासार में स्तंभरोहण की प्रथा पूरी की जाती है, जिसे स्थानीय डेरी गड़ाई कहते हैं । इस कार्यक्रम के अंतर्गत लकड़ी के दो शुभ स्तंभ पर्व के नाम से स्थापित किए जाते हैं। दशहरा रथ बनाने के लिए हर साल माचकोट, दरभा और जगदलपुर रेंज से करीब 50 घन मीटर साल काष्ठ लाई जाती है। इससे करीब 20 फीट ऊंचे रथ का निर्माण किया जाता है। इसे बनाने में लगभग 15 दिनों का समय लगता है। बकावंड विकासखंड अंतर्गत ग्राम झाऱ उमरगांव तथा बेड़ा उमरगांव के लगभग डे़ढ़ सौ कारीगर इस कार्य को अंजाम देते हैं। रथ को खींचने के लिए लगभग 600 ग्रामीण मौजूद रहते हैं।
बेहतर कार्य विभाजन
बस्तर दशहरे के परिपेक्ष में पर्व से संबंधित प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रारंभ से ही कुछ गांवों के लिए जंगल से लकड़ी लाने के लिए अगरवारा, कचोरपाटी और रायकेरा परगना के विभिन्ना गांव निश्चित किए गए हैं। उन्ही गांवों के ग्रामवासी ,श्रमिक लकड़ी लाने के काम में हाथ बॅंटाते चले आ रहे हैं। झार उमरगांव और बेड़ा उमर गांव के बढ़ई और लोहार प्रतिवर्ष बड़ी जिम्मेदारी से रथ बनाने का काम समय पर पूरा कर लेते हैं। करंजी, सोनाबाल और केसरपाल के ग्रामवासी रथ खींचने के लिए रस्सी बनाने का काम निपटाते हैं । गढ़िया गांव के लोगों को रथ पर सीढ़ी लगाने का काम सौंपा गया है। फूलरथ को कचोरपाटी और अगरवारा परगनों के लोग खींचते हैं वहीं और आठ पहियों वाले रैनी रथ को किलेपाल के माड़िया आदिवासी खींचते हैं। आमाबाल और पराली गांव की निश्चित घरों के लोग वंशानुगत जोगी बैठते आ रहे हैं । वहीं बस्तर दशहरे के अग्रगण्य कार्यक्रम काछनगादी का दायित्व अंचल का मिरगान पनका कुटुंब निभाता आ रहा है। इस तरह बस्तर दशहरा सामाजिक समरसता और सहकारिता का विश्व प्रसिद्घ उदाहरण भी है।