18 जुलाई राजनीति के लिए यादगार दिन बन गया है. इस दिन दो बड़ी पार्टियां अपने कुनबे को बड़ा करने की होड़ में दिख रही थी. बीजेपी और कांग्रेस दोनों दल ये साबित करने भी जुटे थे कि उनका कुनबा मजबूत है और भारतीय राजनीति की ज्यादातर सियासी पार्टियां उनके साथ हैं.
ज़ाहिर तौर पर दो बड़े दलों के बीच मची होड़ में छोटी सियासी पार्टियों की जरूरत राष्ट्रीय फलक पर कहीं ज्यादा बढ़ती दिख रही है.
ओम प्रकाश राजभर इन दिनों कांशीराम के उन कथनों को याद कर रहे हैं, जिसमें छोटी कम्यूनिटी का प्रतिनिधि करने वाले नेताओं को राजनीतिक पार्टी बनाने की सलाह देने की बात कही गई थी. कांशीराम कहते थे कि ऐसा कर लेने से बड़े दल छोटी पार्टियों के पास आने को मजबूर होते हैं और कम्यूनिटी में इस वजह से अधिकारों को लेकर जागरुकता तेजी से फैलती है.
ओम प्रकाश राजभर की एनडीए में फिर से वापसी हुई है. वो सुभासपा के नेता हैं और चुनाव से पहले एनडीए में आने के बाद काफी चर्चा में हैं. साल 2019 के लोकसभा चुनाव के परिणाम में सुभासपा के वोटो की संख्या एक फीसदी से भी कम थी लेकिन अब दावा किया जा रहा है कि सुभासपा का साथ मिलने से बीजेपी जैसी पार्टी दर्जन भर सीट पर जीत हासिल करने में सफल हो सकती है. दरअसल ऐसी छोटी पार्टियां स्वयं के दम पर एक भी सीट जीत सकने की ताकत नहीं रखती हैं, लेकिन बड़ी पार्टियों के साथ मिलकर उनकी जीत सुनिश्चचित करने की ताकत ये जरूर रखती हैं. ओमप्रकाश राजभर आत्म विश्वास से लबरेज होकर इन दिनों घूम-घूम कर कहते सुने जा सकते हैं कि राजभर समाज का नाम राजनीतिक ताकत के रूप में उनके द्वारा पार्टी बनाने के बाद ही सुर्खियों में आया है.
यही हाल यूपी में अपना दल का है. साल 2019 में अपना दल को 1.2 फीसदी वोट ही हासिल हो पाया था और ये पार्टी दो लोकसभा सीटें जीतने में सफल रही थी. एनडीए में अपना दल इसलिए महत्वपूर्ण घटक हो जाता है क्योंकि इसकी वजह से पूरा कुर्मी समाज यूपी में बीजेपी को वोट करने लगा है. यूपी की तीसरी पार्टी निषाद पार्टी भी बेहद छोटी पार्टी है और निषादों को बीजेपी के पाले में ले जाने में सफल रही है. वहीं झारखंड में आजसू बीजेपी के साथ मिलकर बीजेपी की जीत की वजह बनी है. पिछले चुनाव में 4.3 फीसदी वोट पाकर आजसू एक लोकसभा सीट जीत सकी है. लेकिन कुशवाहा का पूरा समर्थन बीजेपी को दिलाने में आजसू को क्रेडिट जाता है. जानकार मानते हैं कि बीजेपी का यही माइक्रो मैनेजमेंट पीएम मोदी को हर जाति का नेता बनाने में मददगार साबित हुआ है.
कांग्रेस भी छोटी पार्टियों को साधने में जुट गई है.
कांग्रेस भी बीजेपी की जीत की वजहों को अपनाने में जुट गई है. साल 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले छोटे दलों को साधने को लेकर कांग्रेस भी तेजी से आगे बढ़ रही है. दरअसल इसकी वजहें भी हैं. पिछले चुनाव में प्रकाश अंबेडकर की पार्टी महावंचित अघाड़ी से तालमेल न करने की वजह से कांग्रेस तीन लोकसभा सीटों पर चुनाव सीधे तौर पर हारी है.
कांग्रेस के साथ 12 उन लोकसभा सीटों पर तालमेल चाहती थी, जहां से पिछले पांच चुनाव में कांग्रेस जीत नहीं सकी है. लेकिन कांग्रेस के शीर्ष नेताओं द्वारा महावंचित अघाड़ी को तवज्जो नहीं दिए जाने की वजह से प्रकाश अंबेडकर ने ओवैसी की पार्टी से समझौता कर लिया था और कांग्रेस इसका खामियाजा लोकसभा में तीन सीटों पर सीधे तौर पर भुगती थी. महावंचित अघाड़ी की वजह से ओवैसी की पार्टी एक सीट जीत पाने में सफल रही थी. शिवसेना (उद्धव) महावंचित अघाड़ी की ताकत को पहचानकर महाराष्ट्र में उससे तालमेल कर चुकी है. अगले चुनाव में महावंचित अगाड़ी विपक्षी पार्टियों की तरफ से चुनावी मैदान में उतर सकती है और बीजेपी और उसके घटक दलों के लिए कहीं ज्यादा मजबूत चुनौतियां पेश कर सकती हैं.
बिहार में दोनों दल इसी कोशिश में लगे हैं
बिहार में इसी कोशिश में महागठबंधन और बीजेपी दोनों लगी हुई हैं. बीजेपी कुशवाहा समाज पर मजबूत पकड़ बनाने के लिए उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी को अपने साथ ला चुकी है. कहा जाता है कि यादवों के बाद दूसरी सबसे बड़ी जाति कुशवाहा समाज ही है. बीजेपी अपने कुनबे को मजबूत करने की होड़ में जीतन राम मांझी और चिराग पासवान की पार्टी को भी साथ ला चुकी है. गौरतलब है कि इन छोटे दलों के महत्व को बीजेपी समझ रही है इसलिए इन्हें लोकसभा चुनाव से पहले गंभीरता के साथ मनाने में जुट गई है.
पिछले लोकसभा चुनाव में एलजेपी को 8 फीसदी वोट प्राप्त हुआ था और एलजेपी छे की छे लोकसभा सीटें जीतने में सफल रही थी. जीतन राम मांझी की पार्टी ‘हम ‘ उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी रालोसपा, मांझी की हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा, मुकेश साहनी की वीआईपी और सीपीआई(एमएल)मिलकर 9 फीसदी वोट हासिल करने में सफल रही थी. सीपीआई(एमएल) महागठबंधन के साथ है जबकि रालोसपा बीजेपी के साथ लेकिन मुकेश साहनी की पार्टी का तालमेल किसी भी दल के साथ अब तक औपचारिक तौर पर नहीं हो सका है.
दरअसल दावा किया जा रहा है कि जाति आधारित कई नई पार्टियां दशकों से राजनीतिक हिस्सेदारी से वंचित रही हैं.इसलिए दशकों बाद इन पार्टियों को बड़ी पार्टियां तवज्जो देकर साधने में जुट गई हैं.
कांग्रेस भी खेल रही छोटे दलों पर दांव
एलजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अरूण कुमार कहते हैं कि एनडीए की मीटिंग में पीएम मोदी समेत बड़े नेताओं द्वारा जोरदार स्वागत इस बात का प्रमाण है कि छोटे दलों की महत्ता राष्ट्रीय फलक पर महसूस की जाने लगी है. राजनीति के जानकार डॉ संजय कुमार कहते हैं कि कांग्रेस का 26 पार्टियों के साथ मीटिंग कर बीजेपी के खिलाफ चुनाव लड़ने की बात करना आगामी लोकसभा चुनाव में छोटी पार्टी की महत्ता को पूरे तरीके से साबित करता है. कहा जा रहा है कि जयंत चौधरी की पार्टी भी कांग्रेस के साथ पश्चिम यूपी में गठबंधन कर सकती है.
छोटी पार्टियां ही तय करेंगी साल 2024 के नतीजे?
छोटी पार्टियों को मैनेज करने में बीजेपी पिछले कुछ सालों में ज्यादा सफल रही है. हरियाणा में जजपा हो या झारखंड में आजसू या फिर सिक्किम में एसकेएफ,जोरमथंगा की मिजो नेशनल फ्रंट,नागालैंड की एनडीपीपी,एनसीपी- कोनरॉड संगमा जैसी पार्टियां बीजेपी की सफलता की कहानी बयां करती हैं. ज़ाहिर तौर पर ऐसी ही कोशिशें कांग्रेस द्वारा किए जाने की संभावना है. पीएम समेत बीजेपी के तमाम कद्वावर नेताओं द्वारा एनडीए की मीटिंग में तमाम दलों का एनडीए में स्वागत इस बात का प्रमाण है. कांग्रेस ने नए गठबंधन को ‘इंडिया’ का नाम दिया है. इसमें और कई दल शामिल हो सकते हैं ऐसा प्रयास कांग्रेस पार्टी द्वारा किया जा रहा है. ज़ाहिर तौर पर साल 2024 के लोकसभा चुनाव में इन दलों की महत्ता साफ तौर पर दिखने लगी है और बड़े दल इस बार इन्हें साथ लेकर सत्ता के शिखर तक पहुंचने की तैयारी में जुट गए हैं.