क्या भारतीय जनता पार्टी आगामी आम चुनाव, कांग्रेस के नेता ‘राहुल के ख़िलाफ़ एक जनमत संग्रह’ या ‘रेफ़रेंडम” के तौर पर लड़ना चाहती है?
इस सवाल पर राजनीतिक हलकों में बहस भी चल रही है और कई विश्लेषक मानते हैं कि ये आगामी लोकसभा चुनावों को लेकर बीजेपी की बनाई रणनीति भी हो सकती है.
सियासी हलकों में ये सवाल भी उठ रहे हैं कि ऐसे में दूसरे विपक्षी दलों का क्या होगा?
राजनीति पर नज़र रखने वाले कई जानकारों को लगता है कि भारतीय जनता पार्टी ‘विपक्ष में फूट’ डालने की अपनी रणनीति में कामयाब होती नज़र आ रही है.
इसके संकेत संसद के चल रहे बजट सत्र में (31 जनवरी से 6 अप्रैल) भी देखने को मिल रहे हैं.
संसद में कांग्रेस अकेली पड़ी
संसद में दोनों सदनों की कार्यवाही गतिरोध का शिकार हो रही है.
एक ओर जहाँ गौतम अदानी के कारोबार पर हिंडनबर्ग की रिपोर्ट को लेकर विपक्ष एक सुर में बोलता नज़र आ रहा है, और इसकी जाँच जेपीसी यानी संयुक्त संसदीय समिति से कराने की मांग पर सरकार को लगातार घेर रहा है, वहीं दूसरी तरफ़ राहुल गाँधी की लोकसभा में बोलने की मांग पर कांग्रेस सदन में अकेली पड़ती दिख रही है.
संकेत तब ही मिलने लगे थे, जब दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की गिरफ़्तारी के विरोध में लगभग सभी विपक्षी दल जुटे थे.
इस विरोध प्रदर्शन में कांग्रेस कहीं नहीं दिखी. इसके अलावा कई विपक्षी दलों ने सिसोसिया की गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ प्रधानमंत्री को पत्र भी लिखे. लेकिन कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया.
अलबत्ता सिसोदिया की गिरफ़्तारी के बाद दिल्ली में कांग्रेस ने सिसोदिया और आम आदमी पार्टी के ख़िलाफ़ जमकर पोस्टरबाज़ी भी की.
ये बात ज़रूर है कि उद्धव ठाकरे की शिवसेना हो, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल ओर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी या तमिलनाडु की डीएमके – ये सभी दल अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस के सहयोगी हैं. लेकिन सिसोदिया की गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ इन सभी ने कांग्रेस से अलग अपना रुख़ अपनाया और विरोध जताया.
क्षेत्रीय दल बीजेपी का विरोध क्यों करते हैं?
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की प्रोफ़ेसर रहीं ज़ोया हसन अपने एक विश्लेषण में कहती हैं कि भारतीय जनता पार्टी ने अपना पूरा ज़ोर लगा दिया है ये सुनिश्चित करने में कि पूरा का पूरा विपक्ष एकजुट ना हो पाए, क्योंकि बीजेपी कोई महागठजोड़ नहीं बनने देना चाहती.
ज़ोया मानती हैं कि इस रणनीति के तहत ही केंद्रीय एजेंसियाँ क्षेत्रीय दलों के नेताओं के रिकॉर्ड खंगाल रही हैं.
ज़ोया हसन के अनुसार, “बहुसंख्यकवाद और लोकतांत्रिक मूल्यों में हो रही गिरावट के मुद्दे ऐसे हैं जिस पर विपक्ष आसानी से एकजुट हो सकता था. लेकिन इसका ठीक उल्टा होता दिख रहा है.
कभी कई विपक्षी पार्टियाँ कांग्रेस की विरोधी रही हैं, लेकिन अब उनके लिए बीजेपी का विरोध ज़्यादा मुश्किल हो गया है. ज़्यादातर क्षेत्रीय दल ऐसे हैं जिनको बीजेपी की विचारधारा से उतनी परेशानी नहीं है. वो बीजेपी का सिर्फ़ इसलिए विरोध करते हैं ताकि भाजपा उनकी राजनीतिक ज़मीन पर अतिक्रमण न कर ले.”
कांग्रेस पर नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई मानते हैं कि आम चुनावों के पहले से ही भारतीय जनता पार्टी राहुल गाँधी को विपक्ष का बड़ा नेता बनाने की पूरी कोशिश में लगी हुई है.
वो ये भी कहते हैं कि बीजेपी ने कांग्रेस और ख़ास तौर पर राहुल गांधी के सामने ऐसे हालात पैदा करने शुरू कर दिए हैं, जहाँ राहुल गांधी को बीजेपी की ‘पिच’ पर ही उतरकर खेलने को मजबूर होना पड़ रहा है.
मोदी बनाम राहुल
भारतीय जनता पार्टी जिस राजनीतिक लाइन पर काम करना शुरू कर चुकी है, उससे ऐसा लगता है कि आने वाले आम चुनाव को वो लोगों के सामने कुछ इस तरह से प्रस्तुत करेगी जैसे कि ये एक तरह से ‘नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गाँधी के व्यक्तित्व’ को लेकर लड़ाई हो.
किदवई मानते हैं कि भाजपा आम चुनावों को एक तरह से ‘राहुल के खिलाफ़ जनमत संग्रह’ की तरह से लड़ना चाहती है.
वो कहते हैं, “व्यक्तिवाद पहले भी रहा है. ये सिर्फ़ मोदी और राहुल की बात नहीं है. इस फ़ेहरिस्त में इंदिरा गाँधी, लालू प्रसाद यादव, मायावती, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, चंद्रशेखर राव जैसे नाम भी शामिल हैं.
लेकिन राहुल गांधी के सामने दुविधा ये है कि वो ख़ुद को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित भी नहीं कर सकते हैं और ये भी नहीं कह सकते हैं कि वो प्रधानमंत्री बनना नहीं चाहते हैं. अगर वो कहते हैं कि वो प्रधानमंत्री पद का चेहरा हैं तो विपक्ष नाराज़ हो जाएगा. और अगर वो बोलते हैं कि वो प्रधानमंत्री पद की दौड़ में नहीं हैं, तो कांग्रेस के कार्यकर्ता निराश हो जाएँगे.”
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विपक्ष में राहुल के नेतृत्व पर कितनी स्वीकृति?
रशीद किदवई कहते हैं कि विपक्ष में कई ऐसे बड़े नेता हैं जो राहुल गाँधी को अपना नेता नहीं मान सकते.
इन नेताओं में प्रमुख नाम तो शरद पवार का है ही, जिनकी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी महाराष्ट्र में तो कांग्रेस के साथ है, लेकिन नगालैंड में वो भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन वाली एनडीपीपी का समर्थन कर रही है.
इसके अलावा के चंद्रशेखर राव, अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, मायावती और अखिलेश यादव भी कुछ ऐसे नेता हैं जो राहुल का नेतृत्व स्वीकार करेंगे- इस पर उन्हें संशय ही है.
ज़ोया हसन मानती हैं कि कई क्षेत्रीय दल ऐसे हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के साथ आने में इसलिए संकोच करते दिख रहे हैं क्योंकि उनके ख़ुद के नेताओं में प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा पल रही है.
लेकिन वो ये मानती हैं कि विपक्ष का कोई भी मोर्चा तब तक संभव नहीं है, जब तक उसमें कांग्रेस भी शामिल न हो.
वो ये भी मानती हैं कि चाहे वो कांग्रेस हो या कोई अन्य विपक्षी दल, सिर्फ़ अपने बूते भाजपा को हराने की क्षमता नहीं रखता.
लेकिन किदवई ऐसा नहीं मानते हैं. वो कहते हैं कि ‘इससे पहले भी वर्ष 1977 में इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ विपक्ष एकजुट हुआ था और वो भी किसी को प्रधानमंत्री का चेहरा बिना बनाए. बाद में मोरारजी देसाई को चुनाव के बाद सर्वसम्मति से नेता चुना गया और वो प्रधानमंत्री बने.’
“बीजेपी चाहती है कि विपक्ष बिखरा रहे”
किदवई कहते हैं, “फिर ऐसी ही कुछ परिस्थिति वर्ष 1989 में पैदा हुई थी, जब बिना प्रधानमंत्री के चेहरे की घोषणा किए विपक्ष ने कांग्रेस के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा था और जब नतीजे आए, तो पहले चौधरी देवीलाल को प्रधानमंत्री के रूप में साझा रूप से चुना गया और फिर देवीलाल ने विश्वनाथ प्रताप सिंह के लिए लिए पद छोड़ दिया था. यही परिस्थिति वर्ष 1996 में भी हुई थी, जब एचडी देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बने थे और उनके बाद इंद्र कुमार गुजराल.”
राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह कहते हैं कि एक समय जिस तरह कांग्रेस बनाम पूरा विपक्ष हुआ करता था, मौजूदा समय में बीजेपी नहीं चाहती है कि वैसे हालात हों. इसलिए वो चाहती है कि विपक्ष बिखरा रहे और विपक्ष में फूट बनी रहे इसके लिए बीजेपी रात-दिन काम कर रही है.
एनके सिंह का कहना था कि ये बात सही है कि एक समय में बीजेपी कई क्षेत्रीय दलों के लिए अछूत ही थी.
वो कहते हैं, “लेकिन बीजेपी की राजनीतिक छलांग के बाद उन दलों ने ही बीजेपी के साथ मिल कर या तो सरकार बनाई या समर्थन दिया. मिसाल के तौर पर आप समाजवादी पार्टी या जनता दल यूनाइटेड, उद्धव ठाकरे की शिवसेना, तृणमूल कांग्रेस, नेशनल कॉन्फ़्रेंस या पीडीपी को ही ले लीजिए. कुछ एक वाम दलों ने भी एक समय पर बीजेपी को समर्थन दिया था.”
वो मानते हैं कि क्षेत्रीय दलों के लिए उनके प्रभाव वाले राज्य ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं, जहाँ उन्हें अपनी राजनीतिक साख बचाए रखनी है. इसलिए उनमें ये अंदेशा भी है कि राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा की वजह से कहीं उनका राजनीतिक भविष्य देवेगौड़ा या मोरारजी देसाई जैसा ना हो जाए.
संघ विचारक और स्तंभकार राजीव तुली बीबीसी से बातचीत में कहते हैं कि “विपक्ष कभी-कभी ये दिखाने की कोशिश करता भी है कि वो एकजुट है, तो भी उसका कोई राजनीतिक औचित्य नहीं है.”
क्या बिन कांग्रेस विपक्षी गठजोड़ संभव है?
वो कहते हैं, “अब आप देख लीजिए अखिलेश यादव ने कोलकाता जाकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाक़ात की. इससे क्या संकेत मिले? क्या विपक्ष मज़बूत हो गया? न तो अखिलेश यादव के दल को पश्चिम बंगाल में चुनाव लड़ना है और न ही ममता बनर्जी की पार्टी को उत्तर प्रदेश में. इस मुलाक़ात की मीडिया में अलग व्याख्या और विश्लेषण किया जा रहा था. जबकि इसका कोई मतलब ही नहीं निकल रहा था.”
राजीव तुली ये ज़रूर मानते हैं कि जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकार है या जहाँ पर कांग्रेस मज़बूत है, वहाँ उसका मुक़ाबला सीधे तौर पर बीजेपी से ही है. चाहे वो राजस्थान, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड या छत्तीसगढ़ ही क्यों न हो.
वो कहते हैं कि इन राज्यों के अलावा कर्नाटक में जेडी(एस) और कांग्रेस के बीच रस्साकशी चलती रहती है, लेकिन मुख्य लड़ाई कांग्रेस और बीजेपी की ही है. इसलिए उनका मानना है कि बिना कांग्रेस कोई विपक्षी गठबंधन मौजूदा हालात में नहीं बन सकता.
उनके मुताबिक़, “पहले कांग्रेस के बिना हरकिशन सिंह सुरजीत जैसे नेताओं के प्रयास से ये संभव भी हो सका था. अब सीताराम येचुरी जैसे नेता बिना कांग्रेस के किसी विपक्षी गठबंधन में क्षेत्रीय दलों को जोड़ पाने में कामयाब होंगे- ऐसा लगता तो नहीं है.”