यूपी चुनाव 2022 में करारी हार के बाद मायावती का पूरा फोकस मिशन 2024 पर है. बसपा ने 2024 में लोकसभा की 10 सीटें बचाने के लिए अपनी रणनीति में बड़ा बदलाव किया है. अब पार्टी युवाओं को संगठन में तरजीह देकर उसे साधने की कोशिश में है.
पार्टी फिर से गांव चलो की रणनीति पर भी काम करना शुरू कर दिया है.
यूपी बसपा के नए अध्यक्ष विश्वनाथ पाल ने कहा है कि पार्टी की सभी कमेटी में 50 फीसदी युवाओं को जगह दी जाएगी. पाल ने शुक्रवार को कहा कि मायावती के आदेश के मुताबिक पार्टी में सभी जगहों पर युवाओं की भागीदारी सुनिश्चित की जा रही है.
उन्होंने कहा कि बसपा फिर से अपनी पुरानी रणनीति ‘चलो गांव की ओर’ पर काम कर रही है और हम लोगों से संपर्क साध रहे हैं. कांशीराम के वक्त में बसपा लोगों से सीधे संपर्क साधने के लिए गांव चलो की रणनीति पर काम करती थी.
नई रणनीति में क्या है, 3 प्वॉइंट्स
- रिपोर्ट के मुताबिक बसपा निकाय चुनाव से लेकर आगे सभी चुनावों में 50 फीसदी टिकट युवाओं को दे सकती है.
- संगठन में युवाओं को जगह दी जाएगी, जिससे दलित युवाओं को मायावती और बसपा के मिशन के बारे में अधिक जानकारी मिल सके.
- गांव चलो अभियान के जरिए सीधे लोगों से संपर्क बनाया जाएगा. जोनल कॉर्डिनेटर इसकी रिपोर्ट बनाएंगे.
मायावती ने क्यों बदली रणनीति, 4 वजह…
1. 2019 में 38 सीटों पर लड़ी, 10 पर जीत- लोकसभा चुनाव 2019 में मायावती ने सपा से गठबंधन कर लोकसभा की 38 सीटों पर उम्मीदवार उतारे. बसपा को सपा के मुकाबले अधिक फायदा हुआ और पार्टी 10 सीटों पर जीत दर्ज की. इनमें बिजनौर, नगीना, अमरोहा, अंबेडकरनगर, गाजीपुर, श्रावस्ती, लालगंज, सहारनपुर, घोषी और जौनपुर सीटें शामिल हैं.
अधिकांश सीटों पर मुस्लिम, ओबीसी और दलित वोटरों का प्रभाव है, जो गठबंधन की वजह से बसपा जीती थी. वहीं मेरठ और मोहनलालगंज सीट पर बसपा के उम्मीदवार 5 हजार से भी कम वोट से हारे थे. ऐसे में मायावती का फोकस इस बार कुल 12 सीटों पर अधिक है.
10 सीट बचाने की जद्दोजहद इसलिए भी है कि बसपा के गढ़ अंबेडकरनगर में ही पार्टी सबसे कमजोर पड़ गई है.
2. यूपी चुनाव 2022 में लगा था बड़ा सेटबैक- उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 में बसपा को बड़ा झटका लगा था और पार्टी को सिर्फ 1 सीटों पर जीत मिली. वोट पर्सेंटेज में भी भारी गिरावट देखने को मिली थी. मायावती ने हार के लिए मीडिया को जिम्मेदार ठहराते हुए आगे नई रणनीति पर काम करने की बात कही.
2022 के चुनाव में बसपा के 290 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई. पार्टी ने सभी 403 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे. बसपा के गठन के बाद मायावती के लिए 2022 का चुनाव सबसे बड़ा झटका साबित हुआ था.
3. पुराने और दिग्गज नेता होते गए दूर- 2012 में सत्ता से बेदखली के बाद मायावती और उनकी पार्टी से कई पुराने और दिग्गज नेता दूर हो चुके हैं. कुछ नेता खुद पार्टी छोड़ चुके हैं, तो कुछ मायावती निकाल चुकी हैं.
पिछले 10 सालों में बसपा से निकलने या निकाले जाने वाले दिग्गज नेताओं की लंबी फेहरिस्त है. इनमें स्वामी प्रसाद मौर्य, आरके चौधरी, इंद्रजीत सरोज, ब्रजेश पाठक, राम अचल राजभर, लालजी वर्मा, नसिमुद्दीन सिद्दीकी और मिठाई लाल भारती का नाम प्रमुख हैं.
ये सभी नेता बसपा के शुरुआती मूवमेंट से जुड़े रहे हैं और मिशन को आगे बढ़ाने के लिए पार्टी के कई पदों पर रह चुके हैं.
4. चंद्रशेखर भी बसपा के लिए खतरा- हाल के वर्षों में भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद का यूपी में दलितों के बीच तेजी से सियासी उभार हुआ है. शुरू में तो मायावती ने चंद्रशेखर को विपक्षी पार्टियों का एजेंट बताकर उनसे पल्ला झाड़ लिया, लेकिन खतौली उपचुनाव के बाद बसपा की टेंशन बढ़ गई है.
चंद्रशेखर दलित युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय हैं और उनके मुद्दे उठाने को लेकर कई बार जेल भी जा चुके हैं. 2024 के चुनाव में चंद्रशेखर सपा गठबंधन से चुनाव लड़ सकते हैं. खतौली मॉडल अगर 2024 में सफल रहा तो दलितों के बीच चंद्रशेखर एक स्थापित नेता हो सकते हैं.
यूपी में दलित वोटर्स करीब 21 प्रतिशत हैं, जिसमें जाटव 13 प्रतिशत है और 8 प्रतिशत गैर-जाटव वोटर्स हैं. मायावती को 2022 में 12 फीसदी वोट ही मिले.
2007 के बाद सारे प्रयोग फेल
2007 के चुनाव में मायावती ने ब्राह्मण और दलित गठबंधन का प्रयोग किया था. मायावती का यह प्रयोग हिट रहा और बसपा पहली बार उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब रही.
मायावती ने इसके बाद सत्ता बचाने और सरकार बनाने के लिए कई राजनीतिक प्रयोग किए, जो फेल हुआ. 2019 के चुनाव में मायावती की पार्टी सोशल मीडिया पर आई. खुद मायावती ने ट्विटर पर अकाउंट बनवाया.
वहीं 2022 के चुनाव में बसपा ने मीडिया के माध्यम से अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के लिए प्रवक्ताओं की सूची भी जारी की थी. बसपा के इतिहास में यह पहला प्रयोग किया गया था. हालांकि, हार के बाद मायावती ने सूची को निरस्त कर दी.
बसपा: मिशन और मूवमेंट से आस्तित्व की लड़ाई तक
दलितों के बीच सामाजिक मूवमेंट चलाने और मिशन पूरा करने के लिए कांशीराम ने 1984 में बहुजन समाज पार्टी का गठन किया था. बसपा काडर बेस्ड पार्टी थी, जिसका संचालन बामसेफ करती थी. मूवमेंट को सुचारू रूप से चलाने के लिए बसपा में जोनल कॉर्डिनेटर का पद बनाया गया था.
1989 लोकसभा चुनाव में बसपा पहली बार हाथी चुनाव चिह्न लेकर मैदान में उतरी. पार्टी को 4 सीटों पर जीत भी मिली. इसके बाद 2009 तक पार्टी का ग्राफ बढ़ता ही गया. यूपी के अलावा, पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान और बिहार में पार्टी ने जड़े जमा ली.
2012 के बाद बसपा का ग्राफ गिरता गया और 2022 आते-आते पार्टी आस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. लोकसभा में भले पार्टी के पास 10 सांसद हैं, लेकिन विधानसभा और राज्यसभा में पार्टी की स्थिति सही नहीं हैं. बसपा का जनाधार जिस तरह गिरता जा रहा है, वैसे में 10 सीट भी बचाना पार्टी के लिए आसान नहीं है.
मिशन को कामयाब बनाना है मकसद
क्या बसपा को मायावती के नई रणनीति से फायदा होगा? इस सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार अनिल चामड़िया कहते हैं- बसपा का गठन दलितों की आवाज उठाने के लिए हुआ था. इस दौरान मायावती जी ने बसपा में कई प्रयोग भी किए.
बसपा दलितों की लड़ाई का प्रतीक है. रणनीति सभी पार्टियां बदलती है और कभी सफलता मिलती है तो कभी नहीं. बसपा अपने मिशन को मजबूत करने के लिए काम करती है, चुनावी फायदे के लिए नहीं.