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Muharram 2023 : 20 जुलाई को मुहर्रम से क्यों शुरू होगा नया इस्लामिक साल, क्या है कहानी

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इस्लामिक कैंलेडर का पहला महीना मुहर्रम गुरुवार 20 जुलाई से शुरू हो रहा है, आज यानी 19 जुलाई को चांद का दीदार किया जाएगा. इसके बाद मुहर्रम और नए इस्लामिक साल की शुरुआत हो जाएगी. मुहर्रम की दसवीं तारीख को यौम-ए-आशूरा मनाया जाता है, जो इस बार 29 जुलाई को मनाया जाएगा.

इस महीने को गम के तौर पर मनाया जाता है.

1400 साल पहले इस महीने की 10 तारीख को अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद (स:अ:व:व) के छोटे नवासे इमाम हुसैन को उनके परिवार और 72 अनुयायियों समेत मार दिया गया था. इमाम हुसैन पर ये ज़ुल्म 1400 साल पहले करबला (ईराक के शहर) में हुआ. मुहर्रम महीने में हर साल उन्हीं शहीदों के लिए मातम मनाया जाता है.

1400 साल पहले इस महीने की 10 तारीख को अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद (स:अ:व:व) के छोटे नवासे इमाम हुसैन को उनके परिवार और 72 अनुयायियों समेत मार दिया गया था. इमाम हुसैन पर ये ज़ुल्म 1400 साल पहले करबला (ईराक के शहर) में हुआ. मुहर्रम महीने में हर साल उन्हीं शहीदों का मातम मनाया जाता है.

इस्लाम का उदय मदीना (सऊदी अरब का शहर) से हुआ. मदीना से (1132 कि.मी या 704 मील) दूर ‘शाम’ (सीरिया का शहर) में मुआविया नाम का शासक शासन करता था. उसकी मौत के बाद शाही वारिस के रूप में यजीद गद्दी पर बैठा.

यजीद चाहता था कि उसके गद्दी पर बैठने की पुष्टि इमाम हुसैन करें, क्योंकि वह मोहम्मद साहब के नवासे हैं. क्योंकि उनका लोगों पर अच्छा प्रभाव था. लेकिन यजीद को शासक मानने से मोहम्मद के घराने ने इनर कर दिया, क्योंकि यजीद के लिए इस्लामिक मूल्यों की कोई कीमत नहीं थी. इस इनकार के साथ ही हुसैन ने फैसला लिया कि अब वह अपने नाना का शहर मदीना छोड़ देंगे, ताकि वहां अमन कायम रहे.

इस्लाम का उदय मदीना (सऊदी अरब का शहर) से हुआ. मदीना से (1132 कि.मी या 704 मील) दूर ‘शाम’ (सीरिया का शहर) में मुआविया नामक शासक का दौर था.

हुसैन और उनके परिवार को फौज ने घेर लिया

हुसैन मदीना छोड़कर परिवार और कुछ आत्मीयजनों के साथ इराक की तरफ जा रहे थे. करबला के पास यजीद की फौज ने उनके काफिले को घेर लिया. यजीद ने उनके सामने कुछ शर्तें रखीं, जिन्हें इमाम हुसैन ने मानने से फिर से इनकार कर दिया. शर्त नहीं मानने पर यजीद ने जंग का ऐलान कर दिया. इमाम हुसैन इराक के रास्ते में काफिले के साथ फुरात नदी (सीरिया) के किनारे तम्बू लगाकर ठहरे.

यजीदी फौज ने हुसैन के तम्बुओं को नदी किनारे से हटवा दिया. वह पहली मुहर्रम की तारीख थी, और गर्मी का वक्त था. गौरतलब हो कि आज भी इराक में (मई) गर्मियों में दिन के वक्त सामान्य तापमान 50 डिग्री से ज्यादा होता है.

यजीदी फौज ने हुसैन के तम्बुओं को नदी किनारे से हटवा दिया. वह पहली मुहर्रम की तारीख थी, और गर्मी का वक्त था.

हुसैन के काफिले में थे केवल 72 लोग

ये बात साफ थी कि हुसैन जंग के इरादे से नहीं चले थे. उनके काफिले में केवल 72 लोग थे जिसमें 06 माह के बेटे समेत उनका परिवार भी शामिल था. उनका लड़ाई का कोई इरादा नहीं था. सात दिनों में इमाम हुसैन के पास जितना खाना और पानी था, वह खत्म हो चुका था. इमाम सब्र से काम लेते हुए जंग को टालते रहे. अब अगले तीन दिन यानि 7 से 10 मुहर्रम तक इमाम हुसैन, उनके परिवार के सदस्य और उनके साथी भूखे-प्यासे रहे.

10 मुहर्रम तक हुसैन के काफिले का बच्चा-बच्चा भूख-प्यास से तड़प उठा. तब उन्होंने मजबूरी में जंग के लिए हामी भरी.

कुर्बानी की याद में मुहर्रम की महीने में ग़म मनाया जाता है.

इमाम हुसैन को यजीद से नाइत्तेफाकी थी

10 मुहर्रम को हुसैन की 72 लोगों की फौज के लोग एक-एक करके मैदान-ए-जंग में लड़ने गए. जब हुसैन के सारे साथी मारे जा चुके थे, तब दोपहर की नमाज़ के बाद इमाम हुसैन खुद गए. वह भी कत्ल कर दिए गए. इस जंग में हुसैन का एक बेटा जैनुल आबेदीन जिंदा बचा. 10 मुहर्रम को वह बीमार थे, मुहम्मद साहब के परिवार की नई पीढ़ी के इकलौते मर्द वही ज़िंदा बचे. इसी कुर्बानी की याद में मुहर्रम की महीने में ग़म मनाया जाता है.

करबला का यह वाकया मोहम्मद के घराने की तरफ से दी गई कुर्बानी माना जाता है. हुसैन और उनके पुरुष साथियों व परिजनों को कत्ल करने के बाद यजीद ने हुसैन के परिवार की औरतों को गिरफ्तार किया.

इमाम हुसैन की मौत के बाद

यजीद ने खुद को विजेता बताते हुए हुसैन के लुटे काफिले को देखने वालों को बताया कि यह हश्र उन लोगों है जो यजीद के शासन के खिलाफ गए. यजीद ने मुहम्मद के घर की औरतों को कैदखाने में रखा, जहां हुसैन की मासूम बच्ची सकीना की (सीरिया) कैदखाने में ही मौत हो गई. बहरहाल इस वाकये को 1400 से ज्यादा साल बीत चुके हैं. इसीलिए कहा जाता है कि ‘इस्लाम जिंदा होता है हर करबला के बाद’.

शिया और सुन्नी की मान्यताएं अलग

मुहर्रम के महीने को लेकर शिया और सुन्नी समुदाय की मान्यताएं अलग-अलग हैं. शिया समुदाय के लोग जहां मुहर्रम की 1 तारीख से लेकर 9 तारीख तक रोजा रख सकते हैं तो सुन्नी ऐसा नहीं करते, वो मुहर्रम की 9 और 10 तारीख को रोजा रखते हैं. वैसे इस महीने में मुसलमानों के लिए रोजा रखना फर्ज नहीं होता. हालांकि सुन्नत (पुण्य) के तौर पर मुस्लिम ये रोजा रख सकते हैं. इसके अलावा शिया लोग इस पूरे महीने मातम मनाते हैं और काले कपड़े पहनते हैं.