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“Hindi Diwas: 88 साल पहले हिंदी विरोधी आंदोलन को किसने वर्चस्व की लड़ाई में बदला?”

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Hindi Diwas 2025: भारत की सबसे बड़ी ताक़त उसकी भाषाई और सांस्कृतिक विविधता है. लेकिन यही विविधता कभी-कभी विवाद और आंदोलन का कारण बन जाती है. हिंदी विरोधी आंदोलन इसकी एक महत्वपूर्ण मिसाल है.

यह सिर्फ एक ऐतिहासिक प्रसंग नहीं बल्कि आज भी शिक्षा नीति, प्रशासन और राजनीति में असर डालता है.

आइए, हिन्दी दिवस के बहाने इस पूरे मामले को ऐतिहासिक, संवैधानिक और राज्यों के संदर्भ में समझते हैं? यह भी जानेंगे कि भाषा के नाम पर अक्सर राज्यों में क्यों होती रहती है भिड़ंत?

1-संवैधानिक ढांचा और भाषा विवाद की नींव संविधान निर्माताओं ने माना था कि भारत जैसे बहुभाषी देश में किसी एक राष्ट्रीय भाषा की परिकल्पना करना कठिन है. इसलिए अनुच्छेद 343 में हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया और अंग्रेज़ी को सहायक भाषा के रूप में शुरुआती मंजूरी मिली. लेकिन जैसे ही केंद्र ने हिंदी को व्यापक पैमाने पर लागू करने की कोशिश की, गैर-हिंदी राज्यों में असंतोष बढ़ा. यह असंतोष आज तक कभी न कभी उभरकर सामने आता ही रहता है.

2- हिंदी विरोधी आंदोलन का इतिहास 1937:  मद्रास प्रेसीडेंसी में हिंदी अनिवार्यता का विरोध हुआ. पेरियार और उनके अनुयायियों ने इसे उत्तर भारतीय वर्चस्व बताया. ध्यान रहे तब देश में अंग्रेजी शासन था. हिन्दी का विरोध तब भी हुआ और उसी तमिलनाडु में आज भी है. 1965:  हिंदी लागू करने की संवैधानिक समय सीमा पूरी होते ही तमिलनाडु में बड़े आंदोलन हुए. इन्हीं विरोधों ने अंग्रेज़ी को साथ बनाए रखने का रास्ता खोला और वह आज भी कायम है. 1980-90 का दशक: द्रविड़ राजनीति में यह मुद्दा लगातार जिंदा रहा. खूब आंदोलन हुए और यह विवाद उत्तर बनाम दक्षिण भारत के रूप में विद्यमान है. हर साल 14 सितंबर को ‘हिंदी दिवस’ मनाया जाता है.

3- बहस और आंदोलन समय बदलने के बावजूद हिंदी विरोधी भावना खत्म नहीं हुई, बल्कि नई परिस्थितियों में नए रूपों में सामने आई. सोशल मीडिया विवाद पर साल 2019 और साल 2022 में कई बार #StopHindiImposition जैसे हैशटैग ट्रेंड हुए. रेलवे और सरकारी एप्लिकेशन में जब सिर्फ हिंदी और अंग्रेज़ी विकल्प दिए जाते हैं, तो कर्नाटक, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों से आपत्ति उठती है. इसी तरह तीन भाषा फार्मूला स्कूली शिक्षा में एक स्थायी विवाद बना हुआ है.

4- राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 और भाषा विवाद अच्छी नीयत से शुरू की गयी NEP 2020 ने फिर से भाषा विवाद को हवा दी. नीति में कहा गया कि त्रिभाषा सूत्र के तहत सभी छात्रों को तीन भाषाएं पढ़ाई जानी चाहिए. इसमें छात्रों के लिए मातृ भाषा, हिंदी और अंग्रेज़ी शामिल करने की बात कही गई. हालांकि सरकार ने साफ किया कि किसी पर भी कोई भाषा थोपी नहीं जाएगी, लेकिन तमिलनाडु जैसे राज्यों ने इसे तुरंत हिंदी थोपने की कोशिश कहकर खारिज कर दिया. तमिलनाडु विधानसभा ने NEP का विरोध करते हुए घोषणा की कि वह अपने पारंपरिक दो भाषा फार्मूले (तमिल + अंग्रेज़ी) पर ही कायम रहेगा यानी शिक्षा नीति भी सीधे-सीधे भाषा राजनीति से जुड़ गयी.

5- क्षेत्रीय दलों और चुनावी राजनीति की भूमिका तमिलनाडु में DMK और AIADMK ने हमेशा हिंदी विरोध को अपने राजनीतिक नैरेटिव का हिस्सा बनाया. महाराष्ट्र में शिवसेना और मनसे ने मराठी अस्मिता के नाम पर हिन्दी का विरोध किया. हाल ही में जब महाराष्ट्र सरकार ने त्रिभाषा फार्मूले के तहत राज्य के स्कूलों में हिन्दी को तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाए जाने को मंजूरी दी तो भारी विरोध हुआ और सरकार को अपना फैसला वापस लेना पड़ा. कर्नाटक में भी समय-समय पर हिंदी के खिलाफ आवाज उठती है. इससे साबित होता है कि भाषा केवल शिक्षा या प्रशासन का मुद्दा नहीं है, बल्कि राजनीतिक पूंजी भी है.

6- उत्तर बनाम दक्षिण का विमर्श और डिजिटल युग की बहस भाषा विवाद आज सिर्फ सड़कों तक सीमित नहीं है, ऑनलाइन जगत में भी यह बहुत स्पष्ट दिखता है. OTT प्लेटफॉर्म पर फिल्मों को हिंदी में डब कर रिलीज़ करने पर गैर-हिंदी दर्शक असंतोष जताते हैं. गेमिंग और मोबाइल एप्लिकेशन जैसे क्षेत्रों में भी केवल हिंदी और अंग्रेज़ी इंटरफ़ेस देने पर दक्षिण भारत से विरोध होता है. यह बताता है कि डिजिटल इंडिया में भी भाषा का सवाल राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील बना हुआ है. गेमिंग और मोबाइल एप्लिकेशन जैसे क्षेत्रों में भी केवल हिंदी और अंग्रेज़ी इंटरफ़ेस देने पर दक्षिण भारत से विरोध होता है.

7- प्रशासन और रोजगार के अवसरों पर असर कई केंद्रीय भर्ती परीक्षाओं (जैसे रेलवे, बैंकिंग, SSC) में हिंदी को प्राथमिकता देने की कोशिश होती है. इस पर गैर-हिंदी भाषी उम्मीदवार विरोध करते हैं. अदालतों में भी अब तक अंग्रेज़ी ही सबसे ज़्यादा इस्तेमाल होती है, क्योंकि हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओं को समान रूप से स्थान देना जटिल प्रक्रिया है.

8- भाषा विवाद के सकारात्मक पहलू इस पूरे विवाद को अक्सर नकारात्मक रूप में देखा जाता है, लेकिन इसमें कुछ सकारात्मक बातें भी छिपी हैं. इससे भारत की भाषाई विविधता मजबूत हुई है. सरकारों को हमेशा किसी भाषा को थोपने से पहले सहमति की संस्कृति अपनानी पड़ी. अनुवाद, भाषाई तकनीक और मल्टीलिंग्वल शिक्षा को बढ़ावा मिला. आज इंजीनियरिंग की पढ़ाई में भी अंग्रेजी के अलावा अन्य भाषाओं में किताबें उपलब्ध होने लगी हैं. सरकार इस काम को प्राथमिकता पर सुनिश्चित कर रही है.

9-संभावित रास्ते और समाधान किसी भी भाषा को राष्ट्रीय भाषा बनाने पर ज़ोर देने के बजाय हर भाषा को समान सम्मान देना उचित होगा. NEP 2020 में स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि किसी पर कोई भाषा थोपी नहीं जाएगी, इसे व्यवहार में भी सख्ती से लागू करना होगा. हिंदी और अंग्रेज़ी के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं को भी नौकरी और परीक्षा व्यवस्था में मान्यता देना होगा. सांस्कृतिक आदानप्रदान, सिनेमा, संगीत और साहित्य के जरिए भाषाई खाई को पाटना भी श्रेयस्कर हो सकता है.

10. हिंदी विरोधी आंदोलन सिर्फ हिंदी विरोध भर नहीं है, बल्कि यह भाषाई अस्मिता और सांस्कृतिक पहचान का सवाल है. संविधान ने भारत को बहुभाषीय राष्ट्र के रूप में मान्यता दी है, इसलिए यदि केंद्र सरकार या किसी भी संस्था को भाषा के सवाल पर आगे बढ़ना है, तो उसे संवाद, सहमति और संतुलन पर आधारित नीति अपनानी होगी. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने दिखा दिया कि जैसे ही हिंदी या किसी अन्य भाषा को आगे किया जाता है, विरोध स्वतः जन्म ले लेता है. भारत की राजनीति और समाज तभी आगे बढ़ सकते हैं जब हर भाषा को समान सम्मान मिले और एकता में विविधता सिर्फ नारा नहीं बल्कि व्यवहार में भी दिखे.