छत्तीसगढ़ में सात नवंबर को पहले चरण का मतदान होना है. यहां पार्टियां ज जातिगत आधार पर वोट लेने की कोशिश तो करती हैं, लेकिन प्रदेश में अब तक जातिगत ध्रुवीकरण के प्रयास कारगर साबित हुए हैं.
पिछले चार चुनाव को देखें तो कोई भी सियासी दल ये दावा करने की स्थिति में नहीं दिखाई देता कि उसे प्रदेश में जाति के आधार पर मतदान में फायदा हुआ है.
बीजेपी (BJP) अनुसूचित जनजाति के प्रदेश अध्यक्ष विकास मरकाम कहते हैं कि आरक्षण के साथ-साथ जनजाति समाज की विभिन्न समस्याएं, संवैधानिक अधिकार और क्षेत्र के विकास के मुद्दे चुनाव प्रभावित करते हैं. वहीं आदिवासी नेता और कांग्रेस विधायक बृहस्पत सिंह के मुताबिक सियासी दलों की ओर से आरक्षण का दांव जरूर खेला जाता है, लेकिन आदिवासी अपने अधिकारों को समझाते हैं. उनके अपने कई मुद्दे होते हैं, जो पार्टी उन मुद्दों को उठाती हैं, उसे फायदा मिलता है. इसके इतर बृहस्पत सिंह ने भी कहा कि उन्हें जातिगत ध्रुवीकरण की सियासत मंजूर नहीं है.
2012 में रमन सिंह सरकार ने बढ़ाई थी आरक्षण सीमा
बता दें कि साल 2012 में रमन सिंह सरकार ने आरक्षण की सीमा बढ़ाई थी. रमन सिंह सरकार ने आरक्षण की सीमा 50 से बढ़ाकर 58 फीसदी की थी और एक बड़ा दांव खेला था. इसके अनुसार एसटी के आरक्षण को 20 से बढ़ाकर 32 एससी के आरक्षण को 16 से घटाकर 12 और ओबीसी को आरक्षण को 14 फीसदी यथावत रखा था. इसके बाद भी साल 2013 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को एसटी की 29 सीट में 11 सीटें ही मिल पाई थीं, जबकि साल 2008 के चुनाव में 19 सीटों पर जीत हासिल हुई थी.
वहीं साल के चुनाव से पहले जिस एससी वर्ग का आरक्षण घटाया था, उसके लिए आरक्षित 10 सीटों में नौ सीटों पर बीजेपी को जीत मिली थी. विधानसभा कांग्रेस ने जो आरक्षण संसोधन विधेयक पास कराया है, उसमें एससी वर्ग के लिए 12 की जगह 13 एसटी 32 और ओबीसी 27 फीसदी और ईडब्ल्यूस के लिए चार फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया है. हालांकि ये विधेयक राजभवन में अभी लंबित है. कांग्रेस के पास अभी एसटी वर्ग की 29 में से 27 सीटें हैं, जबकि बीजेपी के पास सिर्फ दो सीटे हैं. इसी तरह एससी की 10 में से सात कांग्रेस, दो बीजेपी और एक सीट बीएसपी के पास है.